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शुक्रवार, 21 मई 2021

बाल कहानी : 'सबसे गंदे ...? डॉक्टर अंकल' -डॉ. नागेश पांडेय 'संजय'




 'सबसे गंदे ...? डॉक्टर अंकल' 

 कहानी :डॉ. नागेश पांडेय 'संजय'

    ऑक्छी! ऑक्छी! नेहा की छींक पर छींक आए जा रही थी। जुकाम के मारे बुरा हाल था। सारा शरीर ऐंठ रहा था, और सिर दर्द की तो पूछो ही मत। लगता था जैसे चम्पावत उसे बहुत महंगा पड़ गया।

    चम्पावत में नेहा के मौसा रहते हैं। चम्पावत नया जिला है, कभी इसे पिथौरागढ़ नाम से जाना जाता था। जो भी हो, यह दर्शनीय स्थल है। जिधर नजर डालो, पहाड़ ही पहाड़। लगता जैसे उनकी चोटियां पुकार रही हों- आओ, आओ चढ़ो हम पर। ऊंचे- ऊंचे पेड़ अचरज में डालते हैं । झरने मन मोहते हैं और देखने को मिलते हैं तरह-तरह के लोग। ये लोग यात्री हैं। मां पूर्णागिरि के दर्शनार्थी । पूर्णागिरि का मन्दिर ऊंची चोटी पर है। कहते हैं जब भगवान शिव मृत पार्वती को लेकर आकाश मार्ग से चले थे तो उनके अंग जगह-जगह पर गिरते गये। पूर्णागिरि पर मां पार्वती की नाभि गिरी थी, चोटी पर इसी मन्दिर के दर्शन हेतु दूर-दूर से सब आते हैं।

    नेहा भी अपने चाचा के साथ गयी थी। साथ में थे मौसा- मौसी । उन्होंने ही ये कहानी सुनाई थी। नेहा को पहाड़ पर चढ़ना अच्छा लगा। पहाड़ पर रहने वालों को व्यायाम की क्या जरूरत ? तनिक चढ़े कि हो गया व्यायाम | चढ़ाई करने से भूख भी लगती है। पहाड़ की फायदेमंद हवा से शरीर स्वस्थ बनता है । नेहा को भी पहाड़ चढ़ने में मजा आया। मजा इसलिए भी आता है, क्योंकि जो चीजें बहुत पास दिखती हैं वास्तव में होती दूर हैं। रास्ते घुमावदार हैं, बस वहीं घूमते रहो । लगता है, अब पहुंचे- अब पहुंचे।

    नेहा समझदार है, मन से पढ़ती और समझती है । लेकिन 'नौ दिन चले अढ़ाई कोस' मुहावरे का सही अर्थ उसे यहीं समझ आया।

    मां पूर्णागिरि के मन्दिर पर भीड़ थी, मगर ज्यादा नहीं। दर्शन आसानी से हुए। मौसा जी ने कहा 'देखो, वह नीचे शारदा नदी बह रही है।' क्या दृश्य था- पहाड़ों से अठखेलियां करती शारदा नदी ऊपर से बड़ी सुहावनी लग रही थी। ज्यों प्रकृति सफेद मोतियों की चमचमाती माला पहने, निश्चिन्त होकर विश्राम कर रही हो

    नेहा मचली- 'मौसा जी, मैं तो नहाऊंगी इसमें।

    ''हां, नहाना । मगर कम-कम।' चाचा ने समझाया। वापस चले तो यात्रा शानदार हो गयी । कठिनाई चढ़ाई में होती है, उतरने में क्या । बस, भागते चले जाओ । न थकान, न उलझन। फिर भी सावधानी तो हर जगह चाहिए । सावधानी हटी, दुर्घटना घटी। जीवन की दोस्ती सावधानी से हो। जिसने इसका साथ छोड़ा, नुकसान उठाया।

    एक आदमी था, पैर पकड़े बैठा था। मोच आ गयी थी । इधर उधर देखता लापरवाही से चल रहा था, फिसल गया पैर।

    फिसलन उनके लिए नहीं है, जो सावधान हैं। सावधान रहने से विश्राम मिलता है, असावधानी से कष्ट । चाचा कहने लगे- 'बेटा, चढ़ना-उतरना ही जीवन है। पढ़ाई भी पहाड़ है, पढ़ाई की सीढ़ियां सतर्क होकर चढ़ो तो आगे विश्राम ही विश्राम है, सुख ही सुख है । जो पढ़ाई के पहाड़ से डरते हैं, डर कर चढ़ते नहीं। उन्हें विश्राम नहीं, कष्ट मिलता है। अभी मेहनत से पढ़ाई की सीढ़ियां चढ़ोगे तो आगे चलकर उतार मिलेगा। सुख और आराम का उतार । नहीं तो संघर्षों की चढ़ाई शुरू होती है। लोग उस पर चढ़ते-चढ़ते थक जाते हैं।'

    चाचा की बातें अच्छी थीं, मगर नेहा का मन पहाड़ों में रमा था। उसे झरने में नहाने के सुख की प्रतीक्षा थी, लो आ गए वहीं।

    मौसा- मौसी नहाए, चाचा नहाए । नेहा नहाई, मगर जमकर । छप-छपा-छप। आ! जी करता है, हमेशा यही रहें । टंकी के फव्वारे में नहाने का सुख यहां फीका है ।

    'अब, बस भी करो।' मौसा-मौसी और चाचा सभी ने कहा। मगर नेहा, उसे तो मजा आ गया नहाने में। नहाए जाओ, नहाए जाओ ।

    चाचा ने उसे पकड़ा- 'चलो चेंज करो कपड़े । यह पहाड़ी पानी है। ज्यादा नहाना नुकसान कर सकता है।

    बात तो ठीक थी । 'अति सर्वत्र वर्जयेत।' नेहा ने नहाने की अति कर दी थी ।

    नेहा मानी । तैयार होकर सब चल दिए। वापस मौसा के घर आये। सो गये पड़कर । थकान हो तो नींद अच्छी आती है। अच्छी नींद चाहिए तो थकान जरूरी है। थकान के लिए कुछ न कुछ करते रहना। चाहिए। कुछ करते रहने का अर्थ यह बिल्कुल नहीं कि आलस्य करो । यों आलसी को सर्वाधिक थकान आती है मगर मेहनती और आलसी की थकान में अंतर है। मेहनती की थकान उसे उन्नति के पथ पर ले जाती है और आलसी की थकान उसे अवनति के पथ पर, बीमारी के पथ पर । खैर, नेहा की थकान तो मेहनत से थी ।

    मगर नेहा ने मेहनत के साथ-साथ गलती भी की थी । कौन सी गलती अति करने की गलती । नहाने की अति करने से उसे तकलीफ शुरू हुई और जब उसकी आंख खुली तो मुंह से आवाज निकली आंक छीं!

    केवल छींक ही नहीं, कसकर जुकाम और भयंकर सिर दर्द । ज्यादा नहाने का दण्ड उसके सामने था थर्मामीटर से देखने पर पता चला कि उसे बुखार भी है । बुखार एक सौ एक। 

    'चलो, तुम्हें डॉक्टर को दिखाएं।'

    'डॉक्टर !' नेहा की बोलती बन्द । नेहा को डॉक्टरों से बड़ा डर लगता था । बस वही रटे रटाए वाक्य और रटे-रटाये उपदेश । ऊपर से मां-बाप की झिड़कियां सुनो सो अलग। पास में डॉक्टर गिरिजा बहादुर थापा थे, नेहा को  वहां ले जाया गया।

    'हुंअँ! तुम्हें तो जमकर बुखार है। हाथ नब्ज देखकर डॉक्टर थापा बोले- 'रोटी तो नहीं खाई ? ' 'नहीं।'

    उन्होंने आला निकाला 'पीठ इधर करो ।' नेहा पीछे घूम गयी।

    'सांस गहरी लो । '

    'हंअ ! हंअ'

    'और गहरी । '

    'हंअ ! हंअ ! हंअ' 'बेटे, थोड़ा और गहरी '

    हां ! हां ! हां ! हां ! हां ! नेहा जोर-जोर से आवाज निकालने लगी ।'

    वहां बैठे मरीज हंस दिये। नेहा को गुस्सा आया । डॉक्टर थापा ने उसकी आंखें देखीं फिर कहा

    'मुंह दिखाओ, आ करो।'

    'आ आ'

    'यह तुम्हारे मुंह में क्या है ? '

    'टॉफी। "

    'टॉफी ? टॉफी बिल्कुल बन्द । कतई मत खाना।' 'और चॉकलेट ?' सहमकर नेहा ने पूछा ।

    'टॉफी, चॉकलेट, लेमनजूस, लालीपॉप सब बन्द ।'

    अब नेहा ने गहरी सांस ली। तभी डॉक्टर थापा बोले, ' और दो तीन दिन पूरा आराम करना । खेलने भी नहीं जाना।'

    'क.... क्या खेलने भी नहीं ?"

    'हां, और टी. वी. भी न देखना, नहीं तो सिर दर्द बन्द नहीं होगा।'

    डॉक्टर थापा ने नेहा को सुई लगाई वह जोर से चीखी- 'उई' उन्होंने दो दिन की दवा दी । ये छह पुड़ियां थीं। कहा- 'चीनी के साथ इन्हें पीना । एक अभी पियो । '

    बाप रे बाप! कितनी कड़वी दवा । नेहा का मुंह जैसे उत्तर प्रदेश का नक्शा बन गया । चेहरा तमतमा उठा। सोचा- कभी स्कूल में मैडम पूछेंगी बोलो, सबसे गन्दा कौन ?"

    मैं कहूंगी - 'सबसे गन्दे डॉक्टर अंकल । '

    नेहा के मन में आया, अगर उसका वश चले तो सारे के सारे नियम चेन्ज कर दे बजाय सुई के बच्चों को ‘स्ट्रा’ पाइप दे और कहे- लो बेटे, मैंगो जूस पियो बजाय दवा की पुड़ियां या गोलियों के उन्हें टाफियां दें, लालीपॉप दे और कहे बच्चों, चार टाफियां सुबह खाओ, चार दोपहर में और चार शाम को सुबह शाम लालीपॉप चूसो और सारा दिन खेलो । जमकर खेलो, तभी तबियत ठीक होगी। अगर वह मंत्री बन जाये तो सबसे पहले सारे डॉक्टरों की दुकानें बन्द करा दे |

    'चलो बेटी ।' अचानक चाचा ने उसे हिलाया वह खड़ी हुई, चलने को हुई तभी किसी की कराह सुनाई दी।

    यह एक आदमी था, पैर में तगड़ी चोट थी शीशा चुभ गया था । डॉक्टर थापा ने देर न की । झट से घाव साफ किया । शीशा निकाला। मरहम पट्टी की । उसकी जान में जान आयी ।

    नेहा स्तब्ध ये सब देख रही थी। तभी एक बुढ़िया आयी, उसने डॉक्टर के पैर पकड़ लिये दुआएं देने लगी- 'आप भगवान हैं मेरे । आपने मेरे पति को बचा लिया । अब वह खतरे से बाहर हैं । आपने मुझ गरीब पर बड़ी कृपा की। मुफ्त इलाज किया। मैं कैसे आपको धन्यवाद कहूं?' 

    'चलो, चलो बेटी ।' एक बार फिर चाचा ने नेहा की तन्द्रा भंग की ।

    नेहा ने चाचा की अंगुली पकड़ी, बड़े विनम्र आदर भाव से डॉक्टर अंकल को देखा और बोली 'अच्छे डॉक्टर अंकल, नमस्ते ।'

    ‘नमस्ते! नमस्ते' डॉक्टर थापा मुस्करा दिये।

डॉ. नागेश पांडेय 'संजय'



(यह कहानी 25 अक्टूबर,1998 को दैनिक जागरण {साप्ताहिक परिशिष्ट}, कानपुर में प्रकाशित हुई थी. यह लेखक की पुस्तक 'यस सर ! नो सर!'में संकलित है.)


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