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बुधवार, 14 जुलाई 2021

डॉ. नागेश पांडेय 'संजय' की किशोर कहानी 'बौरा'


 बौरा 
कहानी : डा. नागेश पांडेय ‘संजय'

बात पुरानी है, पर है सच। गांव के बच्चे उसे बौरा कहकर चिढ़ाते थे। उस पर कंकड़ फेंकते। वह आंआंआं कर चिल्लाता तो सब ताली पीट-पीट हंसते। हां, अगर मेरी मां देख लेतीं तो बच्चों की शामत आ जाती। वे बच्चों को डांटती। सब नौ दो ग्यारह हो जाते। मां, उसे बुलाकर कुछ न कुछ खाने को देतीं। वह चबूतरे पर बैठ जाता। जल्दी-जल्दी खाता। कभी इधर देखता तो कभी उधर। मां कहतीं, आराम से खा ले। कोई तुझे तंग न करेगा। 

उसका कोई नहीं था। न मां, न बाप। मां बतातीं, मैंने इसकी मां देखी है। वह भी गूंगी थी। सब उसे बौरी बुआ कहते थे। वह जिसके तिसके घर चौका बरतन कर देती और लोग उसे कुछ खाने पीने को दे देते थे। बौरी बुआ को भेड़िए ने मार दिया था। तब यह मुश्किल से दो साल का था। इशारे में ही बात करता था। इसकी बूढ़ी दादी ने इसे जैसे तैसे पाला। थोड़ा बड़ा हुआ तो सबने जाना कि यह भी गूंगा  है। बाद में इसकी दादी भी नहीं रहीं। बेचारा निबट अकेला रह गया। अब तो वह 15-16 साल का किशोर था। तगड़ा-तंदरुस्त भी। परेशान करने वाले बच्चों में से अगर वह एक को भी पकड़ लेता तो क्या मजाल कि सारे मिलकर भी उसे छुड़ा पाते। लेकिन वह कभी कुछ कहता ही नहीं। बच्चे चिढाते तो बस भाग लेता। कई बार तो बच्चे उसे गांव के बाहर तक छोड़ आते। वह वहां ताल के पास बैठा रहता। ताल में कंकड़ फेंकता। कई बार तो ताल में घुस जाता। जलकुंभी तोड़ता। उसके पैर मिट्टी से सन जाते। वह बाहर निकलकर पीपल के पेड़ के पास बैठ जाता। दिन भर बैठा रहता। मिट्टी उसके पैरों में सूख जाती। वह उसे छुड़ाता और आजू बाजू घूरता। 

हमारे गांव के उत्तर में बहुत बड़ा जंगल था। बहुत ही बड़ा। मीलों लंबा। जंगल के इर्द गिर्द और भी गांव थे। मेरे गांव के कई लोग वहां लकड़ी बीनने जाते। इधर बौरा भी जंगल जाने लगा था। लोग उससे काम कराते और थोड़ा बहुत खाने को दे देते। वह खुश हो जाता। अब तो जंगल जाना उसके लिए आम बात हो गई थी। वह लकड़हारों की राह तकता। कब कोई दिखे और वह साथ चल पड़े। अब तो वह दिन में गांव में दिखता ही न था। मैंने एक दिन गुस्से में बच्चों से कहा, वह तुम सबके कारण अब गांव में नहीं दिखता।

बच्चों ने तालियां पीटीं, 'हां, वह डरता है हमसे। डरपोक कहीं का।'

मेरा मन हुआ कि मैं जोर से कहूं कि नहीं, वह डरपोक नहीं। लेकिन मैं चुप रहा। दरअसल मेरी मां कहतीं थीं, किसी से भी न उलझो। बहस अच्छी बात नहीं होती। बहस ही लड़ाई में बदल जाती है। 

फिर भी मुझे चुप रहकर बुरा लगा था। मेरा मन हमेशा कहता कि वह डरपोक नहीं है। वह डरपोक होता तो क्या ताल में घुस जाता? पेड़ पर चढ़ जाता? जंगल से अंधेरे में आता? 

याद आया, एक दिन रात में हमारे चबूतरे पर आहट सी हुई। हमारे गांव में तब बिजली न थी। रात को डर लगता था। शाम होते ही सन्नाटा पसर जाता। झींगुरों की आवाज डराती थी। आधी रात में तो अक्सर सियार की हुआ हुआ शुरू हो जाती थी। हम बच्चे तो दुबक ही जाते थे। उस दिन हवा भी तेज चल रही थी। तेल की कुप्पी बार बार बुझी तो लैंप जलानी पड़ी। लैप का शीशा भी उस दिन ठीक से साफ नहीं हुआ था। 

कौन है? मां जोर से चिल्लाईं। 

उधर से कोई आवाज नहीं। पड़ोस की दीवार से चाचा ने मां का चिल्लाना सुना तो पूछा, क्या हुआ?

देखो भैया, दरवाजे पर कोई है। 

धीरे धीरे बाहर जाकर देखा गया तो बौरा खड़ा था। हाथ में ढेर सारे कमल। मां हंस पड़ीं, अच्छा तो तू है। 

वह मुस्कुराया और कमल मेरे हाथ में थमा दिए।

मां ने इशारे से कहा, खाना खाएगा तो वह चबूतरे पर ही बैठ गया। उसने खाना खाया और लंबे लंबे डग भरते हुए चला गया। 

अब तो वह आए दिन शाम को मेरे घर आ जाता। जंगल  से कभी फूल लाता तो कभी फल। कभी कभी लकड़ी भी दे जाता। मां मना करतीं तो वह इशारे से खाने के लिए मना करता। मतलब अगर आप उसकी दी हुई चीजें नहीं लेंगे तो वह भी आपसे खाना नहीं लेगा। 

एक दिन रात में हम लोग गहरी नींद में थे। जोर का शोर गूंजा। पता चला कि गांव में भेड़िया आया था। राशिद काका की बकरी उठाकर भाग रहा था। लोगों ने लाठी डंडे लेकर उसका पीछा किया मगर उसने बकरी को नहीं छोड़ा तो नहीं छोड़ा। बौरा भी साथ में दौड़ा था। सबने भेड़िए को गांव के बाहर तक दौड़ाया। भेड़िया जैसे हवा हो गया। किसी की भी पकड़ में न आया। सब हार थक कर वापस लौट आए। लेकिन एक अजीब बात हुई। वापस आए तो देखा बौरा तो साथ में था ही नहीं। उसके ठिकाने पर भी जाकर देखा गया। तो क्या...? वह भेड़िए के पीछे जंगल चला गया था? 

शायद हां...।

सब उसे आवाज लगाते रहे। देर तक उसकी ही बात करते रहे। हां, भला आधी रात में उसे खोजने जंगल कौन जाता तो सब अपने अपने घर लौट गए। उस रात मुझे नींद नहीं आई। बस सुबह का इंतजार था। 

सुबह काफी लोग जंगल गए। दूर तक बौरा को बहुत खोजा गया पर वह नहीं मिला। 

सबका मन बहुत दुखी था। 

बौरा गया तो गया कहां? 

मुझे तो रोना आता था। क्या भेड़िया उसे भी खा गया?

...

कोई दस दिन बाद बहुत दूर के एक गांव से खबर आई कि भेड़िया मारा गया। मेरे गांव से कई लोग उसे देखने गए। पता चला कि किसी अनजान इंसान ने उसे मार गिराया। सब भौचक थेे। वह अनजान और कोई नहीं, बौरा ही था। गांववालों ने बताया कि पिछले दस दिनों से हम लोग इसे जंगल में भटकते देख रहे थे। लोगों ने इससे पता ठिकाना जानना चाहा तो ये बता नहीं पाया। साथ चलने को कहा तो आया नहीं। शायद यह इसी भेड़िए को पकड़ने की फिराक में मारा मारा घूम रहा था। 

बौरा गांव आ गया। आ क्या गया। सब उसे सम्मान सहित लेकर आए। यह कहते हुए कि अरे! यह तो हमारे गांव का है। हमारे गांव में तो बच्चा बच्चा वीर है।  

भेड़िए से भिड़ने में बौरा को चोटें भी खूब आईं थीं। कई जगह जख्म भी थे। 

गांववालों ने उसकी बहुत सेवा की। 

खासकर उन बच्चों ने तो खूब ही, जो कहते थे कि वह डरपोक है।■

(कहानी बाल किलकारी, मासिक के जुलाई 2021 अंक में प्रकाशित)



3 टिप्‍पणियां:

ओम नीरव ने कहा…

मार्मिक कहानी! बौरा का सजीव चरित्र-चित्रण मन को छू गया। बधाई लेखनी को!

Nirmala Joshi ने कहा…

बहुत रोचक,मार्मिक बाल कथा।हार्दिक बधाई।🙏🏼🙏🏼

Nirmala Joshi ने कहा…

बहुत सुंदर,रोचक एवम मार्मिक बाल कथा।बहुत बहुत बधाई दिल से।