सरदी, गरमी, वर्षा सारी ऋतुएँ हमको भातीं,
लेकिन इक ऋतु है जो फूटी आँखों नहीं सुहाती।
हाँ.. हाँ.. यही परीक्षा ऋतु है जिसके ढंग निराले,
धमाचौकड़ी, खेल-कूद में डलवा देती ताले।
पढ़े-पढ़ाए पाठ पुराने, पड़ते हैं दोहराने,
कैसी बीता करती हम पर, यह बस हम ही जानें।
बार-बार हर साल निगोड़ी, आती है, जाती है,
हम बच्चों के पास-फेल के वर्ग बना जाती है।
पास छात्र शाबासी पाते, पाते खूब बड़ाई,
फेल हुए जो उनकी भइया समझो शामत आई।
यह ऋतु एक झंझट है भइया, यह ऋतु एक बला है,
पर डैडी जी कहते इससे लड़ना एक कला है।
अथक परिश्रम और लगन से, जो इससे भिड़ जाते,
जीवन में सुख के पर्वत पर बस वे ही चढ़ पाते।
चित्र : गूगल सर्च से साभार
3 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर बाल गीत..बचपन में परीक्षा के समय की याद दिला दी..बहुत सुन्दर
सुन्दर और प्रेरक बालकविता!
आजकल मेरे भी इक्जाम्स चल रहे हैं..प्यारी कविता.
_______________
पाखी बनी परी...आसमां की सैर करने चलेंगें क्या !!
एक टिप्पणी भेजें