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गुरुवार, 10 जून 2021

बाल कहानी 'फुदकू का पैराशूट'- डॉ. नागेश पांडेय 'संजय'

 

फुदकू का पैराशूट
डॉ. नागेश पांडेय 'संजय'

सिटी के बाहर एक ताल था। बहुत बड़ा। पास में ढेर सारी झाड़ियां थीं। फिर उसके बाद कई पेड़। पेड़ों पर जहां तरह-तरह के पक्षियों के घर थे, वहीं ताल मछलियों का ठिकाना था।

 झाड़ियों में ढेर सारे मेंढक थे। सुबह होते ही सब ताल किनारे जा पहुंचते। कूदते-फांदते। मछलियों के साथ खेलते और मन करता तो पेड़ों के पास जाकर चिड़ियों के सुर में सुर मिलाने की कोशिश करते। इधर चिड़ियों की चीं चीं चीं और उधर उनकी टर्र टर्र। कबूतर करते गुटरगूं और वे करते टर्र टर्र। बंदर खों खों खों करते, तब भी उनकी टर्र टर्र गूंजने लगती। झींगुर अपना इकतारा बजाता तो भी वे अपनी टर्र टर्र शुरू कर देते। कौआ कांव कांव करता, तब भी। यहां तक कि ऊपर से हवाई जहाज या हेलीकाप्टर गुजरता तो भी सब उसकी गड़गडाहट के साथ टर्र टर्र करना न भूलते। यानी हर किसी के साथ वे अपनी मौजूदगी का अहसास कराते। 

इन दिनों ताल में सिंघाड़े उगे थे। मेंढकों को वहां बहुत अच्छा लगता। वे उनके पत्तों पर जा बैठते। तैरते। इन्हीं मेंढकों में एक तो बहुत ही अनोखा था। उसका नाम था फुदकू। फुदकू नाम भी ऐसे ही नहीं पड़ गया। दरअसल वह हमेशा इधर-उधर फुदकता रहता। फुदकते-फुदकते कितनी दूर निकल जाता। फिर घरवाले उसे ढूंढ़ने निकलते। साथ में पेड़ के पक्षी भी। जिससे-तिससे पूछते फिरते। जबाव मिलता- हां, उधर जाओ सिटी के पास चौराहे पर। वहीं फुदक रहा था। उफ, घरवाले कितना परेशान होते। पर भला फुदकू, वह कहां मानता।

किसी की निगाह पड़ जाती तो चिल्लाता-देखो, वह रहे मियां फुदकू। 

सब चैन की सांस लेते।

फुदकू प्रामिस करते-ठीक है। अब इतनी दूर नहीं जाऊँगा। मगर फुदकते-फुदकते वे कहां पहुंच जाएंगे, ये तो खुद उनको भी न पता होता। 

एक दिन फुदकू निकले तो चलते ही गए। चलते-चलते ...हां, मतलब फुदकते-फुदकते वे शहर के सिटी पार्क में जा पहुचे। पहले तो पूरे पार्क का एक चक्कर लगाया। बच्चों की ट्रेन देखी तो उसके पीछे दौड़े मगर पकड़ न पाए। फिर वहां फब्बारा देखा तो फूले न समाए। उसमें खूब नहाए। 

तरह तरह के फूलों को देखा। बच्चे वहां फोटो खींच रहे थे। फुदकू उन्हें ताकने लगे। अचानक एक बच्चा उन्हें पकड़ने दौड़ा। 

अरे! बाप रे। -फुदकू भागे और झाड़ियों में जा छिपे। कुछ देर तक वहीं दुबके रहे। फिर बाहर झांककर देखा तो बच्चे वहां से जा चुके थे। बच्चे कहां गए? अब फुदकू उन्हें देखने चल दिए। दरअसल वे बच्चे पिकनिक मनाने आए थे। सब फब्बारे के पास चटाई बिछाकर बैठ चुके थे। 

फुदकू ने देखा, खाने की तैयारी हो रही थी। एक बच्चे ने पिज्जा निकाला। दूसरे ने बर्गर। किसी ने डोसा। किसी ने चाउमीन तो किसी ने कुरकुरे।

 ...और कोल्ड ड्रिंक... वह तो उसी दौड़ानेवाले बच्चे के पास थी। वह बोला, ‘अरे, पहले डांस करते हैं। फिर ये सब खाएंगे।’ 

सबने पूछा- ‘भला क्यों?’

वह बोला-‘नहीं तो फिर ये सारी चीजें पेट में डांस करेंगी।’

कुछ बच्चे उठकर डांस करने लगे। 

कुछ मिलकर गाने लगे।

कुछ बच्चे गोल-गोल बैठ गए। वे कभी कुछ खाते तो कभी बात करते-करते ताली पीटने लगते। मियां फुदकू का बार-बार मन करता कि वे भी सुर में सुर मिलाएं। मगर उनको वही दौड़ाने वाला बच्चा याद आ जाता।

बेचारे चुपचाप छिपे बैठे रहे।

 कुछ देर बाद, एक गुब्बारे बेंचनेवाला उधर आया। गैसवाले गुब्बारे। बच्चों ने गुब्बारे खरीदे। 

वाह! फिर नया खेल। बच्चे गुब्बारों को छोड़ देते। गुब्बारे उड़ चलते। बच्चे उछलकर उन्हें लपक लेते। 

फुदकू को भी खूब मजा आ रहा था। 

अचानक दो बच्चे आपस में टकरा गए। उनके गुब्बारे उड़ गए। दोनों लड़ने लगे-तेरे कारण मेरा गुब्बारा गया। 

दोनों गुब्बारे उड़े जा रहे थे। बाकी बच्चे उन्हें देख खुश हो रहे थे। फुदकू भी आंखे फाड़े उन्हें ताक रहे थे। 

अब बच्चे थक गए थे। तीन गुब्बारे बचे थे। बच्चों ने उन्हें एक में बांधा और फिर धागे को झाड़ियों में बांध दिया। शुक्र मानों कि वहीं छिपे बैठे फुदकू पर उनकी नजर न पड़ी। 

गैसवाले गुब्बारों के कारण झाड़ियों में खिंचाव होने लगा। फुदकू को लगा कि अब तो यहां से खिसकने में ही भलाई है। वे थोड़ा उछले तो उनका तो पैर ही धागे में फंस गया। फुदकू ने धागे को काटना चाहा। पर ऐसा नहीं हुआ। फुदकू फिर उछले, पर इस बार तो वे कलाबाजी ही खा गए। धागे का फंदा बन गया। बेचारे फुदकू, वे जोर पर जोर लगाते मगर धागे में उनके पैर उलझते ही जा रहे थे। 

अचानक धागा टूट गया। 

गैस वाले गुब्बारे उड़ चले और साथ में फुदकू भी। 

बच्चे चीखे-‘हमारे गुब्बारे।’

तभी उनकी नजर उसमें लटके फुदकू पर पड़ी। अब तो सारे बच्चे ताली बजाने लगे-पैराशूट, पैराशूट। 

गुब्बारे उड़ते रहे और मियां फुदकू भी। बहुत देर बाद जब गैस कम हुई तो गुब्बारे नीचे आए। 

फुदकू ने चैन की सांस ली। 

बहुत देर चुपचाप बैठे रहे।

इधर उधर ताकते रहे।

पता नहीं, क्या-क्या सोचते रहे।  

फिर धीरे से बोले-टर्र टर्र और जल्दी से अपने ताल की ओर चल दिए। 

(नंदन, मासिक के अप्रैल, 2018 अंक में पृष्ठ 60 पर प्रकाशित)

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