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शुक्रवार, 18 अक्तूबर 2019

बाल कहानी/किशोर कहानी : 'नेहा की दीदी'-डॉ. नागेश पांडेय 'संजय'

नेहा की दीदी
बाल कहानी : डॉ० नागेश पांडेय ‘संजय’
    दीदी, जो नेहा को कभी अच्छी नहीं लगीं, बहुत प्यारी लगने लगीं है। वह कनखियों से उन्हें देखती है, उन्हें देखते-देखते गुमसुम सी हो जाती है। अकेले में उनके बारे में सोचती है-सोचती है-सोचती है... सोचती जाती है...और ...और छल्ल से आँसू टपक पड़ते हैं। आँसुओं की धार फूट पड़ती है।
    दीदी चली जाएँगी।
    इक्कीस को दीदी की शादी है। आज पाँच है, सोलह दिन शेष। कल
पंद्रह दिन शेष रहेंगे। फिर चौदह, तेरह, बारह और फिर...और फिर...!
    नेहा पिछले दो महीने से एक-एक करके दिन गिन रही है।
    दीदी चली जाएंँगी।
    दीदी नेहा से कोई बारह साल बड़ी हैं। नेहा सात में पढ़ती है। उम्र यही होगी बारह या तेरह। उसकी रुचि पढ़ने में है और दोस्ती में। दोस्ती ऐसी सहेलियों से जो फुल इंज्वाय करें। बैठें, गप्पें लड़ाएँ। कुछ इधर की, कुछ उधर की। कुछ खट्टी, कुछ मीठी। अरे, अभी उम्र ही क्या है जो जिंदगी भर के जंजाल के बारे में सोचा जाए। रोटी कैसे बने? हलवा कैसे बने? कढ़ाई कैसे हो-तुरपाई कैसे हो? पापड़ चिप्स, ढोकला, डोसा कैसे बनेगा?... अरे,
क्या करना है जी। नेहा को तो चाय बनाना भी नहीं आता। माँ ने एक बार हँस कर कहा था, ‘‘सास बहुत मारेगी। चाय बनाना भी नहीं आता।’’
    और नेहा ने लपकते अंदाज में जबाव दिया था, ‘‘टी इज इंज्यूरियस टू
हेल्थ। अरे, दूध पिलाऊँगी सासू को। दूध...दूध...दूध.... हड्डी मजबूत।’’
    बातों को बनाना, छौंकना और पकाना नेहा को आता है। बस।
    दीदी से इसीलिए उसका छत्तीस का आँकड़ा था। जब देखो, काम
में जुटी रहती हैं। जुटे भी क्यों न ? सब कुछ तो आता है जी।
    नहीं आता तो सीखने के लिए तुरंत तत्पर। राइटिंग-वाह! जैसे मोती
जड़े हों। किसी को चिट्ठी-विट्ठी या कुछ भी लिखाना हो तो दौड़ा चला आता है- ‘‘दीदी, तुम्हारी राइटिंग बहुत अच्छी है, लिख दो न।’’
    पाक कला-वाह! फाइव स्टार होटल के कुक की भी परनानी हैं। सब कुछ अजीज और लजीज तैयार करती हैं, वह भी फटाफट। तो जूझो हरदम। घर में सब उन्हीं से बनवाते हैं। अरे, बिटिया से बनवाओ, उसका तो जबाव नहीं। कभी-कभी पड़ोस से भी फरमाइशें आती हैं-बिटिया को भेज दो। ढोकले बनवाने हैं या ऐसा ही कुछ  और।
    कढ़ाई-बुनाई- वाह! वाह! वाह! तभी तो आँखों पर चश्मा चढ़ा है। कभी मौसा का स्वेटर, कभी चाचा का। कभी बगल से कोई आता है-अच्छा, फंदे तुम डाल दो, बुन हम लेंगे। कोई कहेगा फ्रंट वाला पल्ला तुम बुन दो न! वो कोने में जो चार लिहाफ रखे हुए हैं, हाँ... हाँ इन्हीं के स्वागत में। शादी में भी फुरसत नहीं।
    नेहा तो कहा करती थी-शादी में हलवाई को आर्डर मत देना, इन्हीं से कहना। बाराती उँगली चाटेंगे। कहो, उँगली चाटते-चाटते खा ही न जाएँ।
    ...और दीदी मारने दौड़ती-ठहर, ठहर जरा।
    किससे करेगी ये सब अठखेलियाँ ?
    दीदी चली जाएँगी।
    
    दीदी, वास्तव में नेहा को कभी अच्छी नहीं लगी। सब उसे दीदी से तौलते हैं। अरे! इसे भी कुछ सिखाओ। बिटिया, तू भी तो कुछ सीख।
    जब सीखने का वक्त आएगा, तब सीखेंगे न। क्या जल्दी है ? और फिर
नहीं भी सीखेंगे, तो क्या ! जमाना फास्ट है। रेडीमेड जमाना। हमीं सब कुछ सीख लेंगे तो बेचारे मार्केटवाले क्या करेंगे ?
    जब तक डोसा, समोसा बनाने की सोंचे और करें तब तक मार्केट से
दस बार आ सकता है।
    दीदी मशीन चलाती हैं, कपड़े सिलती हैं। बाजार वाली चकाचौंध उनमें कभी नहीं आ पाती। मँहगे भी तो पड़ते हैं।
    अरे, क्या करना है। दो मिनट का काम है जी। दुकान पर उलटा-पलटा    और हो गया सलेक्शन, वह भी मनमाफिक। अब दीदी लाख चिल्लाती
रहें, जींस-टीशर्ट कभी सलवार कुर्ता की जगह नहीं ले सकता। न ले।
जमाना फास्ट है। लड़कों की बराबरी करनी है।
    याद आया। इसी बात पर उस दिन नेहा और दीदी में अनबन हो गई
थी।
दीदी : बराबरी क्या लड़कों की नकल करने से होगी। उनके बाल कटे हैं, हम भी कटा लें। वे शर्ट-पैंट पहनते हैं तो हम भी पहनें। अरे, वे क्यां नकल नहीं करते हमारी ? बढ़ाएँ बाल, पहने सलवार-सूट।
    ‘‘हाँ, हाँ पहनेंगे। पहनेंगे। बाल तो बढ़ा ही लिए हैं।’’
    नेहा जोर से हँसी थी।
    जबाव नहीं था दीदी के पास।
    नेहा जबाव नहीं देती। मगर जब देती है तो यह सच है, दीदी के पास जबाव नहीं होता।
    अरे, फिजूल की बातें करती रहती है।
    ‘‘धीमे बोला करो। आवाज बाहर न जाए।’’
    - क्यों न जाए, जी! और फिर वह कोई मोबाइल फोन तो नहीं है जो वाल्यूम लेवल कम कर ले।
    ‘‘तुम बड़ी हो गई हो। लॉन में रस्सी लेकर न कूदा करो।’’
    - तो, ... तो क्या घर में कूदें, कमरे में।... ... इसके लिए केबिन बनवाएँ क्या।
    पता नहीं, दीदी की बुद्धि कैसी है जी। कहने को पी-एच. डी. हैं। कालेज में पढ़ाती हैं। ये तो आज की लड़कियों को बेकार कर देंगी।

    नेहा, इसीलिए जब उन्हें आता देखती है तो मुस्कान छूटती है -आ गईं डॉक्टर साहिबा! फिजीशियन एंड सर्जन। शरीर कैसा रखो, यह बताएँगी। कुछ कहो, तो बातों का आपरेशन करेंगी।
    इधर दीदी चुपचाप काम में लगी हैं। दादी का, मम्मी का सहयोग कर
रही हैं। अब वह नेहा से कुछ नहीं कहतीं। उसे डाँटती भी नहीं, न कोई सुझाव देती हैं।
    नेहा को लग रहा है, कुछ है जो छूट रहा है।
    ... ... दीदी, चली जाएँगी।
    वह दीदी से बात करना चाहती है, कहे क्या ?
    दो दिन शेष हैं।
    ... ... अब एक दिन।
    ... ... आज शादी है ... कल ... दीदी चली जाएँगी।
    कल यानि चौबीस घंटे शेष। तेईस, बाइस... .... अट्ठारह, अब सत्तरह, ... ... तेरह... ... बारह, सिर्फ बारह घंटे।
    शाम का समय है, जयमाल का कार्यक्रम। सच! जोड़ी कितनी फब रही है।
लकी हैं दीदी। जीजाजी भी कितने सहज। पूरा परिवार सहज। कुछ नहीं माँगा। कहा-बहू तो खुद खजाना है।
    सब कितने खुश हैं... ...
    चहल-पहल, नाच-गाना, खावा-पीवी।
    नेहा को कुछ अच्छा नहीं लग रहा! ... ... दीदी ... ...
    नेहा को लग रहा है, सुबह के आठ जैसे बजने ही वाले हैं। दीदी चल देंगी। सब रोएँगे... ...जोर-जोर से। और वह... ... वह तो ...। वह जब गले लगेगी तो शायद दीदी यही कहें - ‘‘लो, नेहा। अब तुम्हें कोई कुछ नहीं कहेगा।’’
    धाँय-ताड़, धाँय-ताड़।
    आतिशबाजी शुरू हो गई। ... पर ... आतिशबाजी ? वह तो पापा ने मना
किया था ... ... ! फिर... ...?
    ‘‘खबरदार जो कोई हिला। अभी मौत की माला गले में डाल दूँगा।’’
    सात-आठ नकाबपोश दिखे , सब के सब हथियार लैस।
    पंडाल शांत।

    सब के सब किंकर्त्व्यविमूढ़। जैसे ढेरों मूर्तियाँ किसी संग्रहालय में स्थापित हों।
    ‘‘क्यों बरखुरदार! शादी में एक पैसा नहीं ले रहे? दहेज रहित विवाह !दुनिया की आँखों में धूल झोंक सकते हो, हमारी आँखों में नहीं।’’
    ...और वह लंबा-चौड़ा छह फुटी बदमाश लड़के के पिता को छोड़ नेहा के पिता की ओर हो लिया -‘‘कितना दे रहे हो बैक डोर से ? अरे, इन्हें नहीं चाहिए तो मुझे दे दो ... ...। देर नहीं ... ...,हाँ, जल्दी ...।’’
    ‘‘प... ... प ... ...। ’’ पापा के मुँह से बोल नहीं फूट रहे थे।
    पंडाल में सैकड़ों लोग। पर सब तमाशबीन। सर्द मौसम में सब पसीने-पसीने। अचानक दीदी उठती हैं - ‘‘पापा, क्या चाहते हैं आप? मेरी जिंदगी में जहर घोल देंगे क्या ?’’ और वे आगे बढ़ती हैं -
    ‘‘प्लीज पापा, वह ब्रीफकेस इन्हें दे दीजिए।’’ 
वह बिल्कुल पास आती हैं- ‘‘आइए, आइए भाई साहब।’’ और अचानक एक गाय जैसे शेरनी का रूप धारण कर लेती है। रिवाल्वर अब दीदी के हाथ में है। वह आदमी नीचे।
     -‘‘सारी की सारी गोलियाँ भेजे में उतार दूँगी। बोल ... ...।’’
    कोई कुछ बोलता नहीं। सभी साथी बंदूकें फेंक देते हैं। भीड़ ने उन्हें दबोच लिया है।
    कोई एक घंटे में : सब पुलिस कस्टडी में।
    जयमाल का कार्यक्रम फिर से शुरू।
    नेहा को लग रहा है। कोई माडर्न नहीं बन पाया। माडर्न तो दीदी हैं।
    दीदी तो लाजबाव हैं।
    सुबह के आठ।
    नेहा को जरा भी शिकन नहीं। दीदी चली जाएँगी।
    आज घर में सारे अखबार आए हैं, सब में दीदी का बड़ा-सा फोटो छपा है - बड़ा-सा समाचार।
    नेहा तैयारी में जुटी है।
    दीदी को विदा जो करना है।

    नेहा दीदी से पूछती है - ‘‘दीदी, मैं भी तुम्हारे साथ चलूँ ? तुमसे तो बहुत कुछ सीखना है।’’
    दीदी हँसकर कहती हैं - ‘‘अपने जीजाजी से पूछ। वे ‘दहेज’ के सख्त खिलाफ हैं।’’
    नेहा लजाकर रह जाती है। आज उसके पास कोई जबाव नहीं है।
डॉ. नागेश पांडेय 'संजय'
(यह कहानी साहित्य भंडार, इलाहाबाद से प्रकाशित  लेखक की पुस्तक 'यस सर ! नो सर! में संकलित है.)



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