चूहे के पेट में चूहे कूदे
- डाॅ. नागेश पांडेय ‘संजय’
(चम्पू शैली की इस कहानी को नाटक के रूप में भी खेला जा सकता है। नाट्य रूपक में केवल 4 पात्र रहेंगे । नेपथ्य में उदघोषक कथा को प्रस्तुत करेंगे और पात्र उनके कथनानुसार अनुकरण/ अभिनय करेंगे। संवाद बच्चे भी बोल सकते हैं अथवा वाचक ही संवादों को भी बोलते रहेंगे और बच्चे उसके अनुरूप अभिनय करते रहेगे।)
स्थान - बरगद का पेड़। उसके नीचे एक घर। (यह दृश्य परदे के माध्यम से भी सम्भव है। पेड़ कोई और भी हो सकता है। जैसी सुविधा रहे। मंच की सज्जा अपनी सुविधानुसार की जा सकती है ।)
पात्र - 1.चुनुआ- नन्हा चूहा 2.चुहिया- चुनुआ की मम्मी 3.बिल्ला- धूर्त 4.कुत्ते दादा-पडोसी(पात्रों की वेशभूषा के लिए मुखौटों का प्रयोग किया जाएगा)
समय- दोपहर
बरगद के पेड़ के नीचे एक बिल था। उसमें एक चुहिया रहती थी। उसका नन्हा-सा एक बच्चा था। बच्चे का नाम था चुनुआ। चुनुआ था बड़ा जिद्दी और जल्दबाज।
हाँ, तो एक बार की बात है। चुहिया खाना बना रही थी। चुनुआ को जोरों की
भूख लगी थी। वह जल्दबाज तो था ही, मचाने लगा उधम-लगा रोने और चिल्लाने -
चुनुआ- अम्मां मुझको भूख लगी है, जल्दी दो कुछ खाने को।
कल तुम जो पपड़ी लाईं थीं, लाओ मुझे चबाने को।।
चुहिया ने उसे समझाया। कहा - बेटे, पपड़ी तो कल ही खत्म हो गई थी। अभी
खाना बना जाता है, मजे से खाना।
चुनुआ ठहरा जिद्दी। वह नहीं माना। रोने लगा कसकर ।
चुनुआ- देर मत करो जल्दी लाओ, पेट हमारा देखो तो।
इसमें चूहे कूद रहें हैं, जल्दी कुछ खाने को दो।।
चुनुआ रो रहा था, तभी वहां से एक बिल्ला गुजरा।
जब उसने सुना कि चुनुआ के पेट में चूहे कूद रहे हैं तो फूला नहीं समाया। उसने सोचा, ‘अरे वाह! चूहे के पेट में चूहे। आज तो एक ही चूहा खाने से मेरा पेट भर जाएगा। बिल्ला मक्कार तो होता ही है। वह आवाज बदल कर गाने लगा -
बिल्ला- बिन पैसे मैं लड्डू बांटू, जिसको खाना हो आए।
जितने खा पाए खा जाए, चाहे तो घर ले जाए।।
रुन्नुक झुन्ना रुन्नुक झुन, झुन्नुक झुन्ना झुन्नुक झुन।।
लड्डू का नाम सुनकर चुनुआ उछलने लगा। वह चुहिया से बोला -
चुनुआ- अम्मां लड्डू वाला आया, मैं तो बाहर जाऊंगा।
हप-हप लड्डू, गप-गप लड्डू, आज पेट भर खाऊंगा।।
ताक लग गई झम्मक झम, लड्डू खाऊं छम्मक छम।।
चुहिया ने उसे रोका, ‘‘नहीं चुनुआ, बाहर मत जाना। यह जरूर कोई चालबाज ठग
है।’’ लेकिन चुनुआ भला क्यों मानता। वह तेजी से भागते हुए बोला -
चुनुआ- अब न सुनूं बात मैं कोई,
लड्डू मुझको खाने दो।
भूख लगी है मुझको भारी,
मुझको भूख मिटाने दो।।
चुनुआ बाहर गया। लेकिन वहां तो कोई नहीं था। चुनुआ आगे बढ़ा, और आगे बढ़ा ... ... और बढ़ा ... फिर लार टपकाते हुए बोला -
चुनुआ- आहा लड्डू, वाहा लड्डू ,
लड्डू वाले आओ न।
मैं लड्डू खाने आया हूँ,
लड्डू मुझे खिलाओ न।।
बिल्ला झाड़ी में छिपा बैठा था। आवाज बदल कर वह बोला -
बिल्ला- आंख बंद कर लो पहले तुम,
लड्डू तभी खिलाऊंगा।
पांच किलो लड्डू हैं ये सब,
अभी तुम्हें दे जाऊंगा।।
चुनुआ ने तुरंत आंखें बंद कर लीं।
मारे खुशी के वह ठुमकने लगा -
चुनुआ- चप्पर-चप्पर, चपर-चपर,
लड्डू खाऊं हपर-हपर।
आंख बंद कर लीं हैं मैंने,
जल्दी कर अब जल्दी कर।।
इधर चुनुआ ने आंखें बंद की और उधर बिल्ला ने लपक कर उसे धर पकड़ा।
अपने पंजे उसके शरीर मे गड़ाते हुए वह हँसा -
बिल्ला- न्यारा चूहा हाथ लगा, प्यारा चूहा हाथ लगा,
पेट में इसके चूहे हैं, खूब बेचारा हाथ लगा,
अब मैं इसको खाऊंगा, बड़ा मजा पाऊंगा।
मारे दर्द के चुनुआ तड़पने लगा। रोते हुए वह चिल्लाया-
चुनुआ- मुझे न खाओ, मुझे न खाओ, हाए मैं मर जाऊंगा,
मुझको छोड़ो, मुझको छोड़ो, मैं न लड्डू खाऊंगा।
छोड़ो छोड़ जल्दी छोड़ो, मुझे बचाओ कोई दौड़ो।।
तब तक चुनुआ को खोजते-खोजते चुहिया वहां आ गई। चुनुआ की हालत देख वह बिलख उठी। सौभाग्य से वहीं पर कुत्ते दादा का घर था।
चुहिया ने जोर से चिल्लाते हुए उन्हें पुकारा -
चुहिया- कुत्ते दादा, कुत्ते दादा, जल्दी दौड़ो जल्दी आओ,
चुनुआ को बिल्ला ने पकड़ा, आओ जल्दी इसे छुड़ाओ।
चीख सुनकर कुत्ते दादा तुरंत आए।
बिल्ले को देखकर वह भौंके-
कुत्ते दादा- भौं-भौं बिल्ले ओ रे बिल्ले,
चुनुआ को तू छोड़ फटाफट,
मार तुझे डालूंगा वर्ना,
पी जाऊंगा खून गटागट।।
बिल्ला डर गया। उसने चुनुआ को छोड़ा और दुम दबाकर भागा।
चुनुआ की जान में जान आई। चुहिया ने कुत्ते दादा का आभार व्यक्त किया।
चुनुआ अपनी करनी पर बहुत दुखी था। वह रोते हुए बोला -
चुनुआ- अम्मां मैंने मनमानी की, कितनी गंदी शैतानी की।
शैतानी का फल पाया, देखो खून निकल आया।।
अम्मां माफ मुझे कर दो, दादा माफ मुझे कर दो,
कर दो माफ मुझे दादा, लो करता हूँ मैं वादा -
बात बड़ों की मानूंगा, कभी नहीं जिद ठानूंगा,
धैर्य सदा अपनाऊंगा, लालच में न आऊंगा।
चुनुआ की बात सुनकर चुहिया और कुत्ते दादा बहुत खुश हुए।
चुहिया बोली-चल, तुझे खाना खिलाऊं।
चुनुआ- माँ दादा को भी तो साथ ले चलो। आज हम सब साथ-साथ खाना खाएंगे।
सब खुश होकर चल दिए।
(समाप्त)
यह कहानी बालहंस अक्टूबर प्रथम 1995 अंक में प्रकाशित हुई थी तथा यह लेखक की पुस्तक 'अमरूद खट्टे हैं'में संकलित है.
4 टिप्पणियां:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (16-01-2016) को "अब तो फेसबुक छोड़ ही दीजिये" (चर्चा अंक-2223) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
नववर्ष 2016 की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुन्दर व सार्थक रचना प्रस्तुतिकरण के लिए आभार! मकर संक्रान्ति पर्व की शुभकामनाएँ!
मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका स्वागत है...
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बहुत सुंदर नाटक । भाषा की दृष्टि से भी और अभिनय के नजरिए से भी।
सुधा भार्गव
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