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शनिवार, 9 नवंबर 2013

बाल कहानी :दीवाली और नयी भाभी-डा. नागेश पांडेय 'संजय'

दीवाली और नयी भाभी
कहानी : डा. नागेश पांडेय 'संजय'

मोनू का मन अनमना था। अनमना इसलिए कि अब तो पक्का हो ही गया था कि दीवाली पर भाभी चली जाएँगी।
जी हाँ, नई-नवेली भाभी: अबूझ पहेली भाभी।
प्यारी भाभी: दुलारी भाभी।
हंसाने  वाली भाभी: गुदगुदाने वाली भाभी।
खुले दिमाग की भाभी: लाजबाब भाभी।
मगर असली बात यह कि भाभी दीवाली पर अपने मायके चली जाएँगी।
वैसे जाएँ भी क्यों न ? उनकी नई-नई तो शादी हुई है। इस घर में आए हुए उन्हें बमुश्किल दो महीने ही हुए हैं। वैसे यह बात अलग है कि दो महीने में ही आल इन वन भाभी पूरे घर में छा गई हैं। बाबा से लेकर दादी तक, पापा से लेकर मम्मी तक और बुआ, ताऊ-ताई और यहाँ तक कि पड़ोस की शर्मा आंटी, गुप्ता आंटी की भी चहेती हैं भाभी। इस समय अगर वोटिंग करा दी जाएँ तो पक्का है कि जीत तो भाभी की ही होगी।
लेकिन भाभी के मायके जाने की बात सोच कर मोनू अनमना है। दीवाली पर धमा-चैकड़ी को लेकर क्या-क्या सोच रखा था उसने। कितनी तो कहानियाँ, और कहानियाँ क्या बचपन की दीवाली की बातें भाभी ने सुना रखीं थी और तभी तो मोनू को लगा था कि इस बार तो दीवाली का कुछ और ही मजा होगा लेकिन ....
दरअसल भाभी का तो स्टाइल ही कुछ अलग है बस... उनके साथ बैठ भर जाओ तो हास्य योगा फेल है। जी हाँ, सुबह घर के सारे लोग जब टहलने जाते हैं तो रास्ते में राजा पार्क में ढेर सारे लोग हा हा हा करते दिख जाते हैं। दादाजी ने बताया था कि यह बाबा रामदेव का हास्य योगा है। सब जबरदस्ती हँसते हैं। मगर भाभी के साथ जब हँसने की नौबत आती है तो पेट में बल पड़ जाएँ। नेचुरल हंसी।
भाभी के आने से पहले तो शायद ही कोई दिन जाता हो जब चुलबुल के साथ मोनू का झगड़ा न होता हो। मगर जादू किया है... जी हाँ, जादू। दोनों लव और कुश बन गए हैं।
मोनू को श्रीरामजी के पुत्रों लव-कुश के  साहस और आपसी प्रेम कहानी भी भाभी ने ही सुनाई थी। नही तो उसके
 कोर्स में तो सब विदेशी कहानियाँ हैं। हों  भी क्यों न ? हिन्दी विषय तो उसके पास है नही।  इंग्लिश मीडियम में पढ़ता है, कक्षा पाँच में। घर में ऐसा माहौल नहीं कि कहानी-वहानी सुनने को मिले। पापा-मम्मी दोनों टीचर हैं। पापा तो यहाँ रहते भी नहीं। उनकी पोस्टिंग अजमेर में है। बाबा और चाचा की दुकान है। देर शाम को घर आते हैं। दादी को तो कथा और प्रवचन वाले सीरियल अच्छे लगते है। चाची ने ब्यूटी पार्लर खोल रखा है। बुआ भी उनके साथ रहती हैं और बचे भइया... तो वे तो इंजीनियर हैं। मगर वे ज्यादा बिजी नहीं रहते। भाभी भी कहती हैं कि उतना कमाओ, जितने में दाल-रोटी आराम से चलती रहे। केवल कमाने-कमाने के चक्क्कर में जिंदगी की और खुशियाँ कुर्बान नहीं होनी चाहिए। जीवन अनमोल है। बार-बार नही मिलता और हम लोग आपाधापी में जीवन को खिलवाड़ बना कर रख देते है।
तो अब मोनू और चुलबुल लड़ते नहीं, मिलकर रहते हैं। और इसका पूरा श्रेय भाभी को जाता है। दोनों शाम को बैठ कर कहानी सुनते हैं। टिपटिपा, गहबर गौवा, सुखनिंदिया, लखटकिया और पता नहीं कितनी सारी मजेदार कहानियां और इसके लिए भाभी ने शर्त रखी थी कि अगर तुम लोग लड़े-झगड़े तो कहानी कभी नही सुनाऊँगी।
और फिर वाकई दोनों ने मेल जोल से रहना शुरू कर दिया था।
भाभी का वादा था कि दीवाली पर वह एक प्यारी सी कहानी सुनाएंगी।  
दीवाली पर तो पापा भी आ रहे थे। घर तो तब ही घर लगता है कि जब सबके सब एक ही जगह हों।
चुलबुल मोनू से छोटा है और थोड़ा तुतलाता है, उसे भी यह जानकर अच्छा नही लगा कि भाभी जा रही हैं। मोनू से बोला, ‘‘वाई (भाई) आपतो पता है ति भाभी दा लही हैं।‘‘
‘‘हां, पता है।‘‘
‘‘तो आओ उनछे बात कलें।‘‘
‘‘क्यों हमारे कहने से क्या होगा ?‘‘ थोड़ा रुककर मोनू बोला-‘‘भाभी के पापा उन्हें लेने आ रहें हैं और दादाजी ने भी हाँ कर दी है।‘‘
‘‘तलो तो। बात तो कलोगे ?‘‘
दोनों भाभी के कमरे की ओर हो लिए।
वहां गए तो देखा कि ढेर सारा पुराना समान फैला पड़ा है। भाभी चहकीं, ‘‘अरे हम तो तुम दोनों का ही इंतजार कर रहे थे।‘‘
‘‘त्यों बेकाल का थामान फितवाना है तबी ?‘‘ चुलबुल बोल पड़ा।
‘‘नही, ये बेकार का समान नही है और इसे फेंकना नही है।‘‘
‘‘क्यों ? आप इसका क्या करेंगी ?‘‘
‘‘बस देखते जाओ। इससे क्या-क्या बनेगा ?‘‘
दोनों ने बड़े ही कौतूहल से आंखे उस बिखरे समान की ओर गड़ा दीं। ग्लास, शीशियां, खाली बोतलें, प्लास्टिक बैग, पुराने कार्ड, रुई, पुराने कपड़े, गत्ते, गिफ्ट के पुराने रैपर, तार, फ्यूज बल्ब, सिलेंडर की टूटी नली, टूटे खिलौने, रददी पेपर, बेकार हो चुके पेन, बटन और पता नहीं क्या-क्या अगड़म-बगड़म।
‘‘समझ गया, ये सब कबाड़वाले को देना है न ?‘‘
‘‘अरे नहीं।‘‘
‘‘तो फिर आप इसका क्या करेंगी ?‘‘
‘‘बस देखते जाओ। हाथ बटाओ।‘‘
‘‘बताओ न भाभी ?‘‘
‘‘इछछे त्या बनाओदी ?‘‘
दोनों भूल गए कि वे यहां क्यों आए थे।
भाभी ने कहा कि इनसे तो बहुत सी चीजें बन सकती हैं मगर फिलहाल अभी तो हम दीवाली पर काम आने वाली कुछ चीजें बनाएंगे।‘‘
और कोई एक घंटे में कमाल हो गया।
पता है क्या-क्या बना ?
प्यारे से गणेशजी, कंदील, नकली फूलों का गमला, चमचमाती झालर, हाथी और उसकी पीठ पर एक टोकरी।
‘‘वाह भाभी, गैस सिलेंडर की खराब नली से बनी हाथी की सूंड़ के क्या कहने।‘‘
‘‘हां, और इस टोकरी में पूजा का सामान रखेंगे।‘‘
चुलबुल ताली बजाकर गाने लगा, दय गनेथ देवा। माता जाकी पालवती ....
मोनू ने पूछा, ‘‘लेकिन भाभी, बल्ब से कुछ नहीे बनाया ?‘‘
‘‘ इससे बाद में रुई की सहायता से चूजे बनाएंगे। अभी तो बहुत कुछ बनेगा जी।‘‘
‘‘वाह भाभी, दीवाली पर और वैसे भी कबाड़ के नाम पर ऐसी कितनी चीजें फेंक दी जाती हैं। पर आपने तो जादू कर दिया। इसे कहते हैं रियूज आफ वेस्ट मेटेरियल।‘‘
‘‘एक दादू औल कलो ना भाभी ?‘‘ चुलबुल को अब असली काम याद आया।
‘‘क्या ?‘‘
‘‘दीवाली पल यहीं लहो न भाभी प्लीद।‘‘
‘‘मैं तहां दा लही हूं ?‘‘ भाभी ने भी उसी की तरह तुतलाकर जबाव दिया।
‘‘क्यों आपके पापाजी आ रहे हैं बुलाने। कल शाम को दादाजी कह रहे थे!‘‘
‘‘हां, और आज सुबह पापाजी का फोन मेरे पास आया था कि वे नहीं आएंगे अभी। सब लोग उड़ीसा जा रहे हैं, जगन्नाथ पुरी।‘‘
‘‘सच्ची भाभी ?‘‘
‘‘नहीं झूंठी।‘‘
और सब पूरी मस्ती के साथ हंस पड़े।
* डा. नागेश पांडेय ’संजय‘

हरिभूमि, १७ अक्टूबर २०१९ 


2 टिप्‍पणियां:

annapurna ने कहा…

अच्छी कहानी बधाई आपको ।

जमशेद आज़मी ने कहा…

बहुत ही सुंदर कहानी।