किशोर - कविता : डा. नागेश पांडेय 'संजय'
कैसे दीपावली मनाऊं?
पास नहीं अम्मा के पैसे,
बापू की तबियत खराब है।
हुई उधारी बंद हर जगह,
कर्जे का भारी दबाव है।
घर के बर्तन बेच-बाचकर
कल का खाना गया बनाया।
जिसको हम लोगों ने मिलकर-
गिन-गिनकर कौरों में खाया।
अम्मा भूखी सोयीं बोलीं-
‘‘मुझे भूख ना, मैं ना खाऊँ।’’
कैसे दीपावली मनाऊँ?
नहीं मदरसे जा पाएँगे
भइया, उनका नाम कट गया।
दादी, को कम दिखता, उनका
बुनने का था काम, हट गया।
दीवाली के दीप बनाकर,
मैंने पैसे चार कमाए।
आशाओं के पुष्प खिले थे-
मन में, जितने, सब मुरझाए।
अपने आँगन भी दमकेंगे-
दीप ख़ुशी के मन झुँठलाऊं
कैसे दीपावली मनाऊँ?
14 टिप्पणियां:
बहुत मार्मिक प्रस्तुति ...
आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल कल 27-10 - 2011 को यहाँ भी है
...नयी पुरानी हलचल में आज ...
उफ़ …………बेहद मार्मिक और संवेदनशील
सुन्दर प्रस्तुति…………दीप मोहब्बत का जलाओ तो कोई बात बने
नफ़रतों को दिल से मिटाओ तो कोई बात बने
हर चेहरे पर तबस्सुम खिलाओ तो कोई बात बने
हर पेट मे अनाज पहुँचाओ तो कोई बात बने
भ्रष्टाचार आतंक से आज़ाद कराओ तो कोई बात बने
प्रेम सौहार्द भरा हिन्दुस्तान फिर से बनाओ तो कोई बात बने
इस दीवाली प्रीत के दीप जलाओ तो कोई बात बने
आपको और आपके परिवार को दीपोत्सव की हार्दिक शुभकामनायें।
geelee-geelee si.......behad marmik.
आपकी पोस्ट आज के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
कृपया पधारें
चर्चा मंच-680:चर्चाकार-दिलबाग विर्क
बहुत मार्मिक लिखा है सर!
एक गरीब के घर का सच यही है वो हमेशा सोचता है कैसे दीवाली मनाऊँ?
सादर
"Bahut Badhiyaa!"
बहुत सुन्दर बाल कविता प्रकाशित की है आपने!
nice
वाह...सुन्दर भावपूर्ण प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...
बहुत ही मार्मिक कविता है दिल भर आया है आपको बहुत बहुत बधाई
मार्मिक और विचारणीय कविता । संजय जी आप बाल-साहित्य के अवलोकनार्थ कृपया यहाँ भी आकर जरूर देखें- http://manya-vihaan.blogspot.in/
अत्यंत मार्मिक रचना।
पढ़कर रुआँसा हो जाता हूँ। फिर भी बार-बार पढ़कर ह्रदय के शोक सागर में गेयता की नौका लेकर उतर रहा हूँ।
टिप्पणी में वंदना जी की रचना काफी अच्छी लगी।
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