नया टेलीफोन
बाल कहानी : डॉ. नागेश पांडेय 'संजय'
पापा ड्यूटी गए थे और मम्मी मार्केट। घर में बस दादी और मेहुल थे। दादी नीचे और मेहुल ऊपर वाले कमरे में-जहां फोन रखा था। चार रोज पहले ही उनके यहां नया टेलीफोन लगा था।
मेहुल के हाथ में डायरेक्टरी थी। वह कुछ परिचितों और अपरिचितों के नंबर नोट करने में लगा था। अभी पांच-छह नंबर ही नोट हो पाए थे, अचानक घंटी बज उठी-ट्रिन...ट्रिन...ट्रिन...ट्रिन।
मेहुल ने लपककर चोगा उठाया-‘‘हैलो! आप कौन बोल रहे हैं?’’
‘‘मैं सोमेंद्र। बेटे, क्या तुम्हारे पापा घर में हैं?’’
‘‘नहीं अंकल। वह तो आफिस जा चुके हैं। आप कोई मैसेज हो तो बोल दीजिए, मैं कह दूंगा।’’
‘‘नहीं...बस... ठीक है बेटे। मैं आफिस में बात कर लेता हूं।’’
फोन कट गया। नीचे से दादी की आवाज आई-‘‘बेटे, किसका फोन था?’’
मेहुल ने बताया और फिर से नंबर नोट करने लगा। उसके मुख पर शरारत भरी मुस्कान थी।
जब से फोन लगा है, मेहुल की खुशी आसमान छू रही है। कब से उसकी इच्छा थी कि अधीश, शिवम्, रुद्र, अंकित और नेहा की तरह उसके यहां भी फोन हो। वह भी अपनी कापी-किताबों पर फोन नंबर लिखे। दोस्तों से शान से कहे-‘‘मेरा फोन नंबर लिख लो। कभी जरूरत पड़े तो बात करना।’’ अब यह क्या कि कभी कोई पूछता तो उसे गुप्ता अंकल के यहां का नंबर नोट कराना पड़ता था। उनसे घर जैसा ही व्यवहार था, फिर भी संकोच भला क्यों न हो? अपनी चीज अपनी होती है। पराई छाछ पर कैसा मूंछ मुड़ाना।
कोई फोन आता था तो गुप्ता जी मैसेज लेकर बता देते थे। जरूरी होता तो बात भी करा देते थे। निजी न होने के कारण फोन कम ही आते थे। बहुत जरूरी होता, तभी कोई फोन करता था। मेहुल तो चाहता था कि ढेर सारे फोन आएं और वही उन्हें रिसीव करे। अब उसकी यह इच्छा पूरी हो गई थी। कोई फोन आता तो तुरंत दौड़ता था, भले ही फोन के पास पहले से ही कोई हाजिर क्यों न हो? टेलीफोन पर बात करने में उसे बड़ा मजा आता था।
आज वह अपने नए टेलीफोन पर कुछ नई ही बात करना चाहता था। अब पंद्रह नंबर नोट हो चुके थे।
‘बस इतने काफी हैं।’ मेहुल मन में बुदबुदाया। पहुंचा टेलीफोन के पास और सबसे पहले मिलाया नंबर 131; यह रेलवे इंक्वायरी का था। थोड़ी देर घंटी बजने के बाद उधर से आवाज आई-‘‘हैलो।’’
लयात्मक स्वर में मेहुल बोला-‘‘मैं गंगाधर बोल रहा हूं।’’
‘‘हां, बोलिए।’’
‘‘दिल्ली के लिए ट्रेन किस समय है?’’
‘‘दोपहर दो बजे।’’
‘‘और शाम को?’’
‘‘पौने सात बजे।’’
‘‘टेªन पूरब से आएगी या पश्चिम से?’’
‘‘... ... ...’’
फोन कट चुका था। मेहुल ने नया नंबर मिलाया-54265। यह जय नारायण ज्वैलर्स का था। बात शुरू हुई-‘‘हैलो, सोने का क्या भाव है?’’
‘‘सत्रह हजार चालीस।’’
‘‘एक क्विंटल मेरे घर भेज दो। पैसे टेलीफोन से भेज दूंगा। ओ.के।’’ मेहुल ने मुस्करा कर फोन रख दिया। अब उसने नया नंबर देखा-42520। यह सोनाली का था। वह उसकी सहपाठिनी थी। कक्षा पांच में पढ़ती थी। किसी को छींक भी आती तो कांप उठती। नंबर एक की डरपोक थी। तुक की बात कि फोन उसी ने उठाया-‘‘हैलो। मैं सोनाली।’’
‘‘और मैं दोनाली।’’
‘‘दोनाली...?’’ सोनाली की हंसी छूट पड़ी। मेहुल डरावनी आवाज में बोला-‘‘खबरदार! जो हंसी। सारे दांतों की हवा निकाल दूंगा।’’
‘‘आप कौन हो?’’ सोनाली की आवाज में धीमापन था।
‘‘मैं भूतों का नया मैनेजर हूं। कब्रिस्तान से बोल रहा हूं।.... आज रात को साढ़े नौ बजे तुम्हारे कमरे में आऊंगा। तुम्हें कान में दर्द होता है न। मैं उसमें रसगुल्ले की चाशनी डालूंगा।’’ फोन कट गया। जरूर सोनाली मम्मी की गोद में जा दुबकी होगी।
मेहुल का फोन करना जारी था।
‘‘हैलो, राजन इलेक्ट्रॉनिक्स?’’
‘‘हां जी।’’
‘‘मेरा फ्रिज खराब है। किसी को घर भिजवा दीजिए।’’
‘‘घर कहां पर है?’’
‘‘पता नहीं।’’ और मेहुल ने फोन रख दिया।
प्यास लग आई थी। पानी पीकर उसने नया नंबर मिलाया-42341। सुरभि वस्त्रालय के मालिक ने कहा-‘‘यस, विश्वनाथ स्पीकिंग।’’
‘‘नमस्कार जी।’’ मेहुल आवाज बदलकर बोला-‘‘मैं राहुल वस्त्र भंडार से बोल रहा हूं। आप साड़ियों की पचास गांठे निकलवा दीजिए। मैं अपना नौकर भेज रहा हूं। ओ.के.।’’
मेहुल को मजा आ रहा था कि आज वह कितने लोगों को बुद्धू बना रहा है। रिसीवर उसके हाथ में था। अचानक घंटी बज उठी-फोन की नहीं, घड़ी की। उसने देखा ग्यारह बज चुके हैं। यानि कि उसे फोन पर बातें करते आधा घंटा हो चुका था। लेकिन अभी मन कहां भरा था? पेट में चूहे और दिमाग में घोड़े कूद रहे थे। मेहुल ने पुलिस स्टेशन को फोन मिलाया। घबड़ाए स्वर में बोला-‘‘अंकल, अंकल। जल्दी आइए... हमारे घर में लुटेरे घुस आए हैं।... वे नीचे हैं।’’
‘‘कहां से बोल रहे हो बेटे?’’
‘‘मैं सेठ जीवनलाल का पोता हूं। मैं ऊपर का कमरा लॉक करके बैठा हूं। आप जल्दी आ जाइए... अंकल।’’
‘‘घबड़ाओ नहीं बेटे। हम तुरंत पहुंचते हैं।’’
सेठ जीवनलाल का घर थाने से ज्यादा दूर न था। पुलिस वहां तुरंत पहुंची। एक-दो फायर किए। दरवाजा बंद था। उसे तोड़कर पुलिस अंदर पहुंची-‘‘खबरदार, जो कोई हिला।’’
अचानक यह सब देख सेठ जीवनलाल घबरा गए। सारी कालोनी में दहशत-सी फैल गई। पुलिस वाले चौंके-‘‘... आप लोग?’’
सेठ जीवनलाल ने माथे पर उभर आई पसीने की बूंदे पोंछी-‘‘और... आप सब...?’’
‘‘हमें फोन पर सूचना मिली कि आपके यहां चोर घुसे हैं।’’
‘‘नहीं तो। किसने आपको सूचना दी?’’
‘‘आपके पोते ने।’’
‘‘मेरा पोता? पर वह तो अपनी नानी के घर गया है।’’
सेठ जी का अच्छा-खासा नुकसान हुआ। कालोनी में दहशत फैल गई थी, सो अलग। पुलिस वाले क्रोध से भर उठे। उनके मुख पर झुंझलाहट थी। सेठ जीवनलाल को आश्वस्त किया गया-‘‘हम आपका नुकसान पूरा कराएंगे।’’
मेहुल ने फायरिंग सुनी थी। वह मस्त था। अब उसे भूख लग रही थी। नीचे गया, अचानक दरवाजे पर दस्तक हुई।
पापा के आफिस का चपरासी था। उसने घबड़ाए स्वर में बताया-‘‘परमार साहब को जीने से गिरने से चोट लग गई है। वे अस्पताल में हैं।’’ थोड़ा रुककर उसने कहा-‘‘हम लोग काफी देर से आपके यहां फोन मिलाने की कोशिश कर रहे थे, मगर वह इंगेज था।’’
फोन भला कैसे मिलता-जब मेहुल रिसीवर ही नहीं रख रहा था। उसने लगातार बातें की थीं। वे भी बेफिजूल की, जिनका न कोई तत्व, न कोई सार। फोन जरूरी बातों के लिए है। कितने लोग नंबर मिलाते रहते हैं और पता लगता है लाइन व्यस्त है। ‘नमस्ते’ और ‘हाय-हलो’ भर कहनके लिए जो फोन करते हैं, वे ध्यान दें तो शायद यह समस्या थोड़ी कम हो जाए।
मेहुल के हाथ-पैर सन्न थे। दादी उसे लेकर चली ही थीं कि सामने से पुलिस आती दिखाई दी-‘‘ सुरेन्द्र परमार का मकान यही है न?’’
‘‘हां जी।’’
‘‘आपको हमारे साथ चलना होगा। किसी ने आपके फोन से हमें गलत सूचना देकर गुमराह किया था।’’
‘‘पर... पर...।’’
‘‘हम सफाई नहीं मांगते।’’ दादी की बात पर पुलिस वालों ने कहा। वे बोले-‘‘हम टेलीफोन एक्सचेंज से पता कर चुके हैं। फोन आपके यहां से किया गया था। किसी बच्चे की आवाज थी...। यह आपका पोता है?’’ मेहुल को देखकर उन्होंने पूछा-‘‘तुम्हारा क्या नाम है?’’
‘‘मेहुल परमार।’’
‘‘यही था। मैं आवाज पहचान गया।’’
चपरासी ने सारी बात बताई तो पुलिस वाले थोड़ा नम्र हुए-‘‘चलिए हम भी अस्पताल चलते हैं।’’
पापा के पैर में चोट थी। प्लास्टर चढ़ना था। वे पहले से ही काफी परेशान थे, सारी बात जानकर और ज्यादा दुखी हुए। उन्होंने किसी कागज पर हस्ताक्षर किए। कहा-‘‘सेठ जी का सारा नुकसान मैं भरूंगा। बेटे की गलती पर मैं बहुत शर्मिंदा हूं।’’
पुलिस चली गई।
पापा ने मेहुल की ओर देखा। उसकी आंखें नीचे झुक गईं। पश्चाताप के आंसू बह निकले।
‘‘बेटे , मैं समझता हूं, फिर कभी तुम ऐसी गलती नहीं करोगे।’’
‘‘कभी नहीं पापा। कभी नहीं।’’ मेहुल दादी से लिपट गया। पापा के चेहरे का दर्द कम हो चला था।
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चित्र साभार : गूगल
4 टिप्पणियां:
bhai Nagesh Pandey ji,
Abhivadan.
apka abhinavsrijanka blog dekha.Sundar, bahut sundar laga. Aap bahut shram kar lete hai.
Is blog mai sabhi kuchh bahut achchha hai.Badhai.
Dr.Dinesh pathak shashi.Mathura.
Uttam Kahani Hai, Badhai
Achhi Katha
प्रिय भाई डॉ. नागेश पाण्डेय जी, इस सप्ताह का आपका ब्लॉग आपने मुझे समर्पित किया है..इसके लिए मैं आपका हृदय से आभारी हूँ..आपका फिर से धन्यवाद..ईश्वर आपको सातों सुख प्रदान करे..मेरी कामना है.. deen.taabar@gmail.com
www.deendayalsharma.blogspot.com
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