उड़न खटोला उड़न खटोला .
देखा इसे पहाड़ पर ,
लटका था जी तार पर .
बढा जा रहा था उपर ,
घरर घरर घर घरर घरर .
मैं भी बैठूँगा मैं बोला .
पापाजी ने लिया टिकट ,
खुश होकर मैं गया निकट .
अचरज से आंखे थी चार ,
मन में उमड़ रहा था प्यार .
मैंने झट दरवाजा खोला .
बैठ गया खिड़की के पास ,
समझ रहा था खुद को खास .
पर जब नीचे गयी नजर ,
कांप उठा मैं थर थर थर .
क्यों बैठा मेरा मन डोला !
उफ ! कितनी उचाई थी ,
नीचे गहरी खाई थी .
लोग बजाते थे सीटी ,
लगते थे जैसे चीटी .
जब पहुँचा तब चहका चोला .
1 टिप्पणी:
उड़नखटोला पर मैंने
इतनी बेहतरीन कविता
इससे पहले कभी नहीं पढ़ी!
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