सच्चाई की जीतबाल कहानी : डा. नागेश पांडेय ‘संजय’
प्रिंस दस साल का था। कोई उसे प्यार से राजकुमार कहता तो कोई उसे राजू भी कह देता था। प्रिंस कक्षा चार में पढ़ता था। उसकी एक बहुत अच्छी आदत थी, सच बोलने की। यद्यपि सच बोलने के कारण उसे कई बार डांट भी पड़ जाती थी। वह सोचता, स्कूल में मैडम तो कहती हैं कि सदा सच बोलना चाहिए। सच्चाई की सदा जीत होती है। फिर सच बोलने पर मेरी डांट क्यों पड़ी? सबने मेरा मजाक क्यों उड़ाया? मुझे बुद्धू क्यों कहा गया? फिर यह क्यों कहा गया, कि अरे! अभी यह बच्चा है।
अब इसका क्या मतलब? तो क्या बड़े होकर हमें झूंठ बोलना चाहिए? प्रिंस कई बार यह देखकर चौंक जाता था कि बड़े भी झूंठ बोल देते हैं। जैसे उस दिन दरवाजे पर एक भिखारी आया था। उसने खाने के लिए रोटी मांगी। मम्मी ने तपाक से कह दिया, भैया ! रोटी तो खत्म हो गई।
प्रिंस बीच में बोल पड़ा, ‘...नहीं मम्मी, आप शायद भूल गईं। रोटियां अभी है। किचन में जाकर देखिए।’
रोटियां तो थीं ही लेकिन मम्मी ने उन्हें कामवाली के लिए बचाकर रखा था। उन्होंने भिखारी को रोटी दे तो दी लेकिन बाद में प्रिंस की क्लास भी ली। पापा से उसकी शिकायत भी की।
प्रिंस ने भोलेपन से कहा, ‘तो मम्मी आप झूंठ क्यों बोलीं? आपको तो यह कहना था कि रोटियां एक्सट्रा नहीं हैं।’
पापा हंस पड़े, ‘हां, प्रिंस की बात तो एकदम ठीक है।’
एक बार अंकल उसे मेला ले गए। मेले में झूला था। नौ साल तक के बच्चों का आधा टिकिट था। अंकल बोले, ‘इसका आधा टिकिट दे दो।’
झूलेवाले ने पूछा, ‘यह कितने साल का है?’
अंकल ने झूठ बोल दिया, नौ साल का। लेकिन प्रिंस तपाक से बोल पड़ा, ‘नहीं अंकल। मैं तो दस साल का हूं।’
बेचारे अंकल, वे चुप रह गए। उन्होंने झुंझलाकर पूरा टिकिट ले लिया।
बाद में घर पर प्रिंस को समझाया गया, जब बड़े बात कर रहे हों तो बीच में नहीं बोलते। यह गंदी बात होती है। प्रिंस ने कहा, ‘लेकिन मुझे लगा कि शायद अंकल को मेरी उम्र ठीक से पता नहीं। इसलिए मैंने सच बोल दिया था। ...तो यह गंदी बात कैसे?’
इस बार दादी ने प्रिंस का पक्ष लिया। ‘हां, प्रिंस ने सच बोला और सच बोलना तो अच्छी बात है।’
एक दिन तो मजा ही आ गया। प्रिंस पड़ोस वाली आंटी के घर खेलने गया था। दरवाजे पर दस्तक हुई। अखबारवाला पैसे मांगने आया था। आंटी के पास खुले पैसे न थे। उन्होंने सोचा कि इसे टाल दिया जाए। वे प्रिंस से बोलीं, ‘जाओ अखबार वाले भैया से कह दो,आंटी घर पर नहीं हैं।’
प्रिंस भागता हुआ दरवाजे पर गया। जोर से बोला, ‘अंकल। अभी आप जाओ। आंटी कह रहीं हैं कि वे अभी घर पर नहीं हैं।’
अखबारवाला हंस पड़ा। बाहर खड़े कुछ और लोग भी हंस पड़े। अब तो आंटी को दरवाजे पर आकर सच बात बतानी ही पड़ी कि उनके पास खुले पैसे नहीं। बाद में आ जाना।
अखबारवाला चला गया। आंटी प्रिंस से बोलीं, ‘तुमने उसे सच क्यों बता दिया?’
प्रिंस ने भोलेपन से कहा, ‘...क्योंकि आंटी हमेशा सच बोलना चाहिए। सच्चाई की हमेशा जीत होती है।’
आंटी ने प्यार से उसके गाल पर हाथ फेरे, ‘अच्छा मेरे प्यारे हरिश्चंद जी।’
प्रिंस चौंका, आंटी। आप क्या मेरा नाम भूल गईं? मैं प्रिंस हूं, हरिश्चंद नहीं।
आंटी हंसीं, ‘हां, हां। तुम प्रिंस ही हो। पर राजा हरिश्चंद से कम नहीं।’ फिर आंटी ने उसे सत्यवादी राजा हरिश्चंद की कहानी सुना दी, जो कभी भी झूंठ नहीं बोलते थे । प्रिंस को बहुत अच्छा लगा। वह यह सोचकर चहक उठा कि कितनी कठिन परीक्षा के बाद भी राजा हरिश्चंद ने सच्चाई का साथ न छोड़ा। ...और अंत में जीत भी तो सच्चाई की ही हुई।
प्रिंस समझ गया था कि सच्चाई एक ऐसा रास्ता है, जिस पर कठिन मोड़ होते हैं। लेकिन तो क्या हुआ? सम्मान तो सच को ही मिलता है न। झूठ तो कभी न कभी बेनकाब ही होता है। गांधी जी सच बोलते थे, तभी तो दुनियां उन्हें महात्मा कहती है। झूठ बोलने वालों को भला कौन महत्व देता है?
लेकिन एक दिन क्लास में अजब घटना घटी। झूठ बोलने वाले ही महत्व पा गए।
मैथ का पीरिएड था। मैडम ने पूछा, ‘कितने बच्चे होमवर्क करके नहीं लाए? खड़े हो जाओ।’
प्रिंस किसी कारणवश अपना होमवर्क नहीं कर पाया था। होमवर्क तो गरिमा, केतन, आदित्य और रमन ने भी नहीं किया था। रमन तो क्लास का मानीटर था। उसी ने बच्चों को समझा रखा था, अगर मैथवाली मैडम होमवर्क के लिए पूछे तो चालाकी से काम लेना। वरना बहुत डांट पड़ेगी।
तो सारे बच्चे चुपचाप बैठे रहे। हां, प्रिंस खड़ा हो गया। धीमे से बोला, ‘मैडम, मैंने होमवर्क नहीं किया है।’
फिर क्या, मैडम ने उसे खूब डांटा। बेंच पर खड़ा कर दिया। सारे बच्चे हंसने लगे।
मैडम ने मानीटर रमन से कहा, ‘आज ब्रेक में बाकी सारे बच्चों की कापियां जमा कर लेना। मैं छुट्टी में चेक करके कल वापस कर दूंगी।’
‘ओ के मैडम!’ रमन अंदर ही अंदर अपनी चालाकी पर खुश होते हुए बोला।
ब्रेक में रमन ने गरिमा, केतन और आदित्य से कहा, ‘चलो, साथियों, अब हम जल्दी से अपना होमवर्क पूरा कर लें। फिर कापियां जमा कर मैडम को दे आऊँगा। ...’
रमन ने प्रिंस का मजाक उड़ाते हुए कहा, ‘चाहो तो बच्चू, तुम भी हमारी पार्टी में शामिल होकर काम पूरा कर लो।’
सब हंस पड़े। पर यह क्या?
अचानक मैथवाली मैडम आ धमकीं। रमन से बोलीं, ‘बेटे! आज बाकी बच्चों की कापियां रहने दो। तुम बस अपनी होमवर्क की कापी दे दो। आज प्रिंसिपल सर केवल मानीटर्स की कापियां देखेंगे।’
बेचारा रमन। अब तो जैसे उसके काटो तो खून नहीं वाला हाल। वह पसीने-पसीने हो गया। उसने होमवर्क किया ही कहां था? मैडम ने सारी बात जानीं तो बहुत नाराज हुईं। उसका मानीटर पद भी छीन लिया। कहा, ‘मुझे झूंठे लोग तो बिल्कुल पसंद नहीं। झूठ बोलनेवाला बच्चा भला एक अच्छा मानीटर कैसे हो सकता है?’
मैडम ने प्रिंस की जमकर तारीफ की। उसकी पीठ थपथपाई। सिर पर हाथ फेरा। सारे बच्चों की ओर देखते हुए कहा, ‘सीखो इस बच्चे से। पनिश्मेंट ले लिया लेकिन झूठ नहीं बोला। मैं आज से इसको मानीटर बनाती हूं।’
सारे बच्चों ने नए मानीटर यानी प्रिंस के लिए जोरदार तालियां बजाईं।
प्रिंस बहुत खुश था। बहुत ही खुश।
एक बार फिर उसका मन मजबूत हुआ था। झूठ कितनी भी सफाई से बोला जाए, झूठ ही रहता है और अंत में जीत सदा सच्चाई की ही होती है। ■
(यह कहानी प्रभात खबर, रांची में 18 अगस्त 2021 को प्रकाशित हुई थी।)