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सोमवार, 13 सितंबर 2021

कविता :'हिंदी भाषा न्यारी'/ नागेश पांडेय 'संजय'

 

हिंदी भाषा न्यारी

कविता : डॉ. नागेश पांडेय 'संजय'

सबकी ही बोली है अच्छी,

सबको अपनी भाषा प्यारी।

फिर भी सभी मानते हैं यह,

हिंदी भाषा सबसे न्यारी।

हिंदी भाषा :  बगिया, जिसमें 

विविध बोलियाँ महक रही हैं।

हिंदी-नभ में भाषाओं की

अगणित चिड़ियां चहक रही हैं।

हिंदी इतनी सरल हृदय है,

इसने सबको मान दिया है।

नए-नवेले शब्दों को निज

आँगन में स्थान दिया है। 

इसीलिए तो सिंधु सरीखी,

अपनी हिंदी बढ़ती जाती।

सारे जग में मान पा रही,

सबके ही मन को है भाती।

रविवार, 22 अगस्त 2021

बाल कहानी 'सच्चाई की जीत' : नागेश पांडेय 'संजय'

सच्चाई की जीत

बाल कहानी : डा. नागेश पांडेय ‘संजय’

प्रिंस दस साल का था। कोई उसे प्यार से राजकुमार कहता तो कोई उसे राजू भी कह देता था। प्रिंस कक्षा चार में पढ़ता था। उसकी एक बहुत अच्छी आदत थी, सच बोलने की। यद्यपि सच बोलने के कारण उसे कई बार डांट भी पड़ जाती थी। वह सोचता, स्कूल में मैडम तो कहती हैं कि सदा सच बोलना चाहिए। सच्चाई की सदा जीत होती है। फिर सच बोलने पर मेरी डांट क्यों पड़ी? सबने मेरा मजाक क्यों उड़ाया? मुझे बुद्धू क्यों कहा गया? फिर यह क्यों कहा गया, कि अरे! अभी यह बच्चा है। 

अब इसका क्या मतलब? तो क्या बड़े होकर हमें झूंठ बोलना चाहिए? प्रिंस कई बार यह देखकर चौंक जाता था कि बड़े भी झूंठ बोल देते हैं। जैसे उस दिन दरवाजे पर एक भिखारी आया था। उसने खाने के लिए रोटी मांगी। मम्मी ने तपाक से कह दिया, भैया ! रोटी तो खत्म हो गई। 

प्रिंस बीच में बोल पड़ा, ‘...नहीं मम्मी, आप शायद भूल गईं। रोटियां अभी है। किचन में जाकर देखिए।’ 

रोटियां तो थीं ही लेकिन मम्मी ने उन्हें कामवाली के लिए बचाकर रखा था। उन्होंने भिखारी को रोटी दे तो दी लेकिन बाद में प्रिंस की क्लास भी ली। पापा से उसकी शिकायत भी की।

प्रिंस ने भोलेपन से कहा, ‘तो मम्मी आप झूंठ क्यों बोलीं? आपको तो यह कहना था कि रोटियां एक्सट्रा नहीं हैं।’ 

पापा हंस पड़े, ‘हां, प्रिंस की बात तो एकदम ठीक है।’

एक बार अंकल उसे मेला ले गए। मेले में झूला था। नौ साल तक के बच्चों का आधा टिकिट था। अंकल बोले, ‘इसका आधा टिकिट दे दो।’ 

झूलेवाले ने पूछा, ‘यह कितने साल का है?’

अंकल ने झूठ बोल दिया, नौ साल का। लेकिन प्रिंस तपाक से बोल पड़ा, ‘नहीं अंकल। मैं तो दस साल का हूं।’ 

बेचारे अंकल, वे चुप रह गए। उन्होंने झुंझलाकर पूरा टिकिट ले लिया। 

बाद में घर पर प्रिंस को समझाया गया, जब बड़े बात कर रहे हों तो बीच में नहीं बोलते। यह गंदी बात होती है। प्रिंस ने कहा, ‘लेकिन मुझे लगा कि शायद अंकल को मेरी उम्र ठीक से पता नहीं। इसलिए मैंने सच बोल दिया था। ...तो यह गंदी बात कैसे?’

 इस बार दादी ने प्रिंस का पक्ष लिया। ‘हां, प्रिंस ने सच बोला और सच बोलना तो अच्छी बात है।’

एक दिन तो मजा ही आ गया। प्रिंस पड़ोस वाली आंटी के घर खेलने गया था। दरवाजे पर दस्तक हुई। अखबारवाला पैसे मांगने आया था। आंटी के पास खुले पैसे न थे। उन्होंने सोचा कि इसे टाल दिया जाए। वे प्रिंस से बोलीं, ‘जाओ अखबार वाले भैया से कह दो,आंटी घर पर नहीं हैं।’ 

प्रिंस भागता हुआ दरवाजे पर गया। जोर से बोला, ‘अंकल। अभी आप जाओ। आंटी कह रहीं हैं कि वे अभी घर पर नहीं हैं।’

अखबारवाला हंस पड़ा। बाहर खड़े कुछ और लोग भी हंस पड़े। अब तो आंटी को दरवाजे पर आकर सच बात बतानी ही पड़ी कि उनके पास खुले पैसे नहीं। बाद में आ जाना।

अखबारवाला चला गया। आंटी प्रिंस से बोलीं, ‘तुमने उसे सच क्यों बता दिया?’

प्रिंस ने भोलेपन से कहा, ‘...क्योंकि आंटी हमेशा सच बोलना चाहिए। सच्चाई की हमेशा जीत होती है।’ 

आंटी ने प्यार से उसके गाल पर हाथ फेरे, ‘अच्छा मेरे प्यारे हरिश्चंद जी।’ 

प्रिंस चौंका, आंटी। आप क्या मेरा नाम भूल गईं? मैं प्रिंस हूं, हरिश्चंद नहीं। 

आंटी हंसीं, ‘हां, हां। तुम प्रिंस ही हो। पर राजा हरिश्चंद से कम नहीं।’ फिर आंटी ने उसे सत्यवादी राजा हरिश्चंद की कहानी सुना दी, जो कभी भी झूंठ नहीं बोलते थे । प्रिंस को बहुत अच्छा लगा। वह यह सोचकर चहक उठा कि कितनी कठिन परीक्षा के बाद भी राजा हरिश्चंद ने सच्चाई का साथ न छोड़ा। ...और अंत में जीत भी तो सच्चाई की ही हुई।

प्रिंस समझ गया था कि सच्चाई एक ऐसा रास्ता है, जिस पर कठिन मोड़ होते हैं। लेकिन तो क्या हुआ? सम्मान तो सच को ही मिलता है न। झूठ तो कभी न कभी बेनकाब ही होता है। गांधी जी सच बोलते थे, तभी तो दुनियां उन्हें महात्मा कहती है। झूठ बोलने वालों को भला कौन महत्व देता है?

लेकिन एक दिन क्लास में अजब घटना घटी। झूठ बोलने वाले ही महत्व पा गए।

मैथ का पीरिएड था। मैडम ने पूछा, ‘कितने बच्चे होमवर्क करके नहीं लाए? खड़े हो जाओ।’

प्रिंस किसी कारणवश अपना होमवर्क नहीं कर पाया था। होमवर्क तो गरिमा, केतन, आदित्य और रमन ने भी नहीं किया था। रमन तो क्लास का मानीटर था। उसी ने बच्चों को समझा रखा था, अगर मैथवाली मैडम होमवर्क के लिए पूछे तो चालाकी से काम लेना। वरना बहुत डांट पड़ेगी। 

तो सारे बच्चे चुपचाप बैठे रहे। हां, प्रिंस खड़ा हो गया। धीमे से बोला, ‘मैडम, मैंने होमवर्क नहीं किया है।’

फिर क्या, मैडम ने उसे खूब डांटा। बेंच पर खड़ा कर दिया। सारे बच्चे हंसने लगे। 

मैडम ने मानीटर रमन से कहा, ‘आज ब्रेक में बाकी सारे बच्चों की कापियां जमा कर लेना। मैं छुट्टी में चेक करके कल वापस कर दूंगी।’

      ‘ओ के मैडम!’ रमन अंदर ही अंदर अपनी चालाकी पर खुश होते हुए बोला। 

ब्रेक में रमन ने गरिमा, केतन और आदित्य से कहा, ‘चलो, साथियों, अब हम जल्दी से अपना होमवर्क पूरा कर लें। फिर कापियां जमा कर मैडम को दे आऊँगा। ...’

रमन ने प्रिंस का मजाक उड़ाते हुए कहा, ‘चाहो तो बच्चू, तुम भी हमारी पार्टी में शामिल होकर काम पूरा कर लो।’ 

सब हंस पड़े। पर यह क्या? 

अचानक मैथवाली मैडम आ धमकीं। रमन से बोलीं, ‘बेटे! आज बाकी बच्चों की कापियां रहने दो। तुम बस अपनी होमवर्क की कापी दे दो। आज प्रिंसिपल सर केवल मानीटर्स की  कापियां देखेंगे।’

 बेचारा रमन। अब तो जैसे उसके काटो तो खून नहीं वाला हाल। वह पसीने-पसीने हो गया। उसने होमवर्क किया ही कहां था? मैडम ने सारी बात जानीं तो बहुत नाराज हुईं। उसका मानीटर पद भी छीन लिया। कहा, ‘मुझे झूंठे लोग तो बिल्कुल पसंद नहीं। झूठ बोलनेवाला बच्चा भला एक अच्छा मानीटर कैसे हो सकता है?’ 

मैडम ने प्रिंस की जमकर तारीफ की। उसकी पीठ थपथपाई। सिर पर हाथ फेरा। सारे बच्चों की ओर देखते हुए कहा, ‘सीखो इस बच्चे से। पनिश्मेंट ले लिया लेकिन झूठ नहीं बोला। मैं आज से इसको मानीटर बनाती हूं।’ 

सारे बच्चों ने नए मानीटर यानी प्रिंस के लिए जोरदार तालियां बजाईं। 

प्रिंस बहुत खुश था। बहुत ही खुश। 

एक बार फिर उसका मन मजबूत हुआ था। झूठ कितनी भी सफाई से बोला जाए, झूठ ही रहता है और अंत में जीत सदा सच्चाई की ही होती है। ■

(यह कहानी प्रभात खबर, रांची में 18 अगस्त 2021 को प्रकाशित हुई थी।)

शुक्रवार, 13 अगस्त 2021

बाल कविता 'पन्द्रह अगस्त' : नागेश पांडेय 'संजय'

 
पन्द्रह अगस्त
कविता : डॉ. नागेश पांडेय 'संजय'

पन्द्रह अगस्त ! पन्द्रह अगस्त !

आजादी का अनमोल दिवस,
जिससे पहले सब थे परवश।
अंग्रेजों का शासन कठोर,
अन्याय, दमन का सिर्फ जोर।
तब लड़कर-भिड़कर, मरकर भी,
दुश्मन को दी थी हाँ, शिकस्त।
पन्द्रह अगस्त ! पन्द्रह अगस्त !

आजादी की कीमत जानें,
भारत की गरिमा पहचानें।
इसका न कभी भी मान घटे,
हम जाति-धर्म में नहीं बँटें। 
सब एक रहें, सब नेक रहें,
हो प्रगतिशील जनता समस्त।
पन्द्रह अगस्त ! पन्द्रह अगस्त !

अपना ध्वज फर-फर-फर फहरे,
दुनिया भारत पर गर्व करे।
कुछ नया करें, यह हो प्रयास,
हो लक्ष्य एक चहुंदिश विकास।
जो हमें तोड़ने की सोचे,
उसके मंसूबे करें ध्वस्त।
पन्द्रह अगस्त ! पन्द्रह अगस्त !

(कविता हरिभूमि, रायपुर, 13 अगस्त, 2021 के बालभूमि पृष्ठ पर प्रकाशित)

मंगलवार, 10 अगस्त 2021

डॉ. नागेश पांडेय 'संजय' की कहानी 'वीर बनूँगा मैं भी...'

 वीर बनूंगा मैं भी...

नितिन को उसके नौवें जन्मदिन पर ढेरों उपहार मिले। ढेर सारे खिलौने। ढेर सारे कपड़े। लेकिन ये सब तो उसके पास पहले से ही थे न, इसलिए उसकी निगाह ...बस ....एक अलग ढंग के गिफ्ट पैक पर ही जमी थी। सबके जाते ही उसने सबसे पहले उसी को खोला। खोलने से पहले उसने मम्मी-पापा से पूछा भी, ‘अच्छा बताइए तो इसमें क्या होगा?’

मम्मी ने कहा, ‘डायरी।’

पापा बोले,‘किताब।’

हां, यह किताब ही थी। कहानियों की किताब। वीर बालक और बालिकाओं की कहानियों की किताब।

‘अरे! वाह। मैं तो इसे जरूर पढ़ूंगा।’ नितिन चहक उठा। किताब मोटी थी। कोई तीस कहानियां उसमें थीं। नितिन ने चार कहानियां तो तुरंत ही पढ़ डालीं। वह तो मम्मी ने मना कर दिया,‘अरे! अब सो भी जाओ। आराम से पढ़ना इसे।’सच पूछो तो नितिन किताब को छोड़ना नहीं चाहता था। हां, लेकिन कल सुबह स्कूल भी तो जाना था और रात भी ज्यादा हो ही चुकी थी। 

नितिन सो गया। सुबह किताब को उसने बस्ते में रखा और बस में भी दो कहानियां उसने पूरी कर लीं। फिर एक पीरियड खाली था तो तीन कहानियां और...। वाकई मजा आ रहा था। बड़ा अचरज हो रहा था। बार-बार आंखें बडी़ हो जातीं। रोंगटे खड़े हो रहे थे। कई बार तो ऐसा लगता कि वह कहानी नहीं पढ़ रहा है, बल्कि सारी घटना उसके सामने ही घटित हो रही है। मजा इसलिए भी आ रहा था क्योंकि ये कहानियां सच्ची कहानियां थीं। ऐसे बच्चों की कहानियां जो लगभग उसकी ही उम्र के थे। अरे!  दो-चार साल बड़े भी हों तो क्या, मतलब थे तो बच्चे ही। 

बाप रे ! एक बच्चा कुएं में कूद गया। ...एक बच्चे ने आग में घिरे लोगों की जान बचाई। ...एक बच्चा बाढ़ में भी न डरा। ...एक लकड़हारे के बच्चे ने जंगल में भेड़िए का सामना किया। ...एक दीदी ने पहाड़ से गिरे बच्चों को बचाया। एक बच्चे ने लुटेरों को पकड़वाया। ...मतलब कितनी कहानियां और वह भी एकदम सच। बच्चों के फोटो भी किताब में छपे थे। ऐसा नहीं कि नितिन पहली बार वीर बच्चों की कहानियां पढ़ रहा हो। उसके कोर्स में भी ऐसी कहानियां थीं। टीचर भी तो अक्सर ऐसी कहानियां सुनाते ही रहते थे। बालक भरत ने षेरों के दांत गिने थे। राम के पुत्र लवकुश ने अश्वमेघ के घोड़े को भी बांध दिया था। ...जैसी कितनी कहानियां उसने सुनी पढ़ी थीं लेकिन कभी उसे अचरज नहीं हुआ। उसे तो लगता था कि ये सब तो बस कहानियां हैं। या फिर वह सोचता था कि वह जमाना और रहा होगा। तब सब ज्यादा शक्तिशाली होते होंगे। लेकिन ये सब तो ? एक दम सामान्य से परिवारों के बच्चे। उसके ही जैसे बच्चे। भई वाह! यह तो कारनामा ही है। इसके लिए उन बच्चों को प्रधानमंत्री जी ने अवार्ड दिया। तो यह तो और बड़ी बात हुई। 

नितिन बहुत उत्साहित था। वह बार-बार सोचता कि वह ऐसा कौन सा काम करे कि उसका भी नाम बालवीरों में आए। उसे भी अवार्ड मिले। मैडम कहती हैं कि हर काम की शुरुआत छोटी होती है लेकिन धीरे-धीरे हम बड़े काम कर डालते हैं। तो अब उसे चूकना नहीं है। कहीं भी मौका मिला तो चांस मिस नहीं होगा। उसे वीर बनना है तो बनना है। 

पांच दिन में नितिन ने सारी किताब पढ़ डाली। उसमें जबरदस्त परिवर्तन भी आया। उसे लगा कि वह भी किसी से कम नहीं है। उस दिन रात में अचानक लाइट गई मगर हमेशा की तरह वह जोर से नहीं चिल्लाया, मम्मी! जल्दी आओ। डर लग रहा।

बाथरूम में मोटी छिपकली को देखकर भी वह डरा नहीं। झाड़ू उठा लाया, तीन बार हट हट हट क्या कहा कि छिपकली भागती नजर आई। 

पड़ोस के रस्तोगी अंकल के बंधे हुए झबरू कुत्ते को देखकर ही उसकी धड़कन बढ़ जाती थी मगर अब तो नितिन बेधड़क चलता चला जाता है और हमेशा उसे देखते ही भूं भूं करने वाला वह झबरू उसे चकित भाव से घूरता रह जाता है। 

एक दिन स्कूल बस खराब हुई लेकिन हमेशा की तरह नितिन इस बार चुपचाप नहीं बैठा रहा, जैसे उसे कुछ पता ही नहीं। ...अरे! बड़े बच्चे जाएंगे। धक्का लगाएंगे और चल ही पड़ेगी बस। नितिन एक झटके में उठा। अन्य बच्चों की तरह नीचे गया। ये लगाया धक्का और लो ये हुई बस स्टार्ट। 

नितिन अब काले-काले कपड़े पहने लाल आंखों वाले बाबा से भी नहीं डरता। नहीं तो जब वे दरवाजे पर भीख मांगने आते थे तो उसकी तो सिट्टी पिट्टी ही गुम हो जाती थी। 

नितिन को लगने लगा कि हां, वह भी वीर है। वह भी कारनामे कर सकता है और उसे करना है। और क्या, जब नहीं डरना है तो करना है।

एक रोज नितिन नुक्कड़ से समोसे लेने जा रहा था। उसने देखा, उसकी ही उम्र का एक लड़का छोटी सी एक लड़की को खींचता हुआ ले जा रहा है। वीरता दिखाने का यह अच्छा मौका था। बस...नितिन ने उसे जा लपका। बच्ची को छुड़ाना चाहा तो वह उलटे उसी लड़के से लिपट गई। क्यों न लिपटती? उसकी छोटी बहन जो थी। बच्ची और ज्यादा सहम गई। वह लड़का तो नितिन से भिड़ने पर आमादा हो गया। कुछ और लोग वहां आए तो वे भी नितिन को भला बुरा कहने लगे। रोती हुई बच्ची शांत होकर चुपचाप अपने भाई के साथ चली गई। 

बेचारा नितिन, उसकी तो समझ ही नहीं आ रहा था कि भला उसकी क्या गलती थी?

एक दिन इंटरवल में केजी में पढ़ने वाले एक छोटे से बच्चें का खिलौनेवाला ऐरोप्लेन लाइब्रेरी की टीनवाली छत पर जा पहुंचा। बच्चा जोरों से सुबक रहा था। नितिन ने आव देखा न ताव, लाइब्रेरी की खिड़की और रोशनदान को पकड़ते-पकड़ते छत पर जा पहुंचा। ऐरोप्लेन तो उसने नीचे फेंक दिया लेकिन अब खुद कैसे नीचे आए? यह तो बड़ी समस्या खड़ी हो गई। नीचे उतरने का तो कोई जुगाड़ ही नहीं। कभी इधर तो कभी उधर। उस पर प्रिंसिपल सर का डर। बेचारे नितिन बुरे फंसे। सारे बच्चे तमाशा देख रहे थे।

एक बच्चा हिंदी वाली शुचिता मैडम को बुला लाया। उन्होंने गेटकीपर अंकल से सीढ़ी मंगवाई। फिर बड़ी सावधानी से नितिन को उतारा गया।

मैडम को जब यह पता चला कि नितिन वीर बनने और वीरता के अवार्ड के लिए ये सब करता फिर रहा है तो पहले तो अपनी हंसी न रोक सकीं। फिर प्यार से उसे समझाया,‘तुम्हें क्या लगता है कि जिन बच्चों ने वीरता के काम किए हैं तो उसके लिए कोई सोची समझी प्लानिंग रही होगी? कम से कम अवार्ड तो उनका लक्ष्य बिल्कुल भी न रहा होगा।’

थोड़ा रुककर मैडम ने कहा,‘वीरों का काम है खतरों से खेलना। न कि जबरदस्ती खतरे मोल लेना। माना कि अभी तुम गिर जाते। चोट खा जाते। हाथ या पैर टूट जाता तो भला एक प्लास्टिक के ऐरोप्लेन के लिए इसमें कौन सी बड़ी बहादुरी होती?’

नितिन के साथ-साथ अन्य सारे बच्चे भी मैडम की बात ध्यान से सुन रहे थे। मैडम ने कहा कि बड़े होकर तुम जानोगे कि वीर कई तरह के होते हैं, जैसे दयावीर, दानवीर, युद्धवीर...आदि आदि। तुम अगर अपने मन में दीन दुखियों के प्रति दया का भाव रखते हो। उनकी सहायता करते हो तब भी तुम वीर ही हो। तुम अगर जरूरतमंदों की मदद करते हो। अपनी चीजों का मिलजुलकर प्रयोग करते हो तो भी तुम किसी वीर से कम नहीं। और वीर होने के लिए बुद्धि और बल तो बहुत ही जरूरी है। अब यह मौके पर ही पता चलेगा कि तुम्हें बुद्धि का प्रयोग करना है या बल का? वैसे वीरता की अधिकांश घटनाओं को देखकर यही समझ आता है कि बल की तुलना में बुद्धि ज्यादा काम आती है। जहां बुद्धि है, वहीं बल है।’

नितिन चहकता हुआ अचानक बोल पड़ा,‘जी, मैडम। सही कह रही हैं, ...बुद्धि के बल पर अकेला बच्चा आग में घिरे तमाम लोगों की जान बचा लेता है। ...एक बच्चा बाढ़ में फंसे कितने लोगों को सुरक्षित स्थान पर जा पहुंचाता है। अकेला बच्चा डरावने भेड़िए को भी हरा देता है। चालाकी से एक बच्चा कितने लुटेरों को पकड़वा देता है।...

नितिन आगे कुछ बोलता, इससे पहले सारे बच्चों की तालियां गूंज उठीं। मैडम ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘...और बच्चों, कभी भी अवसर आए तो तुम भी पीछे नहीं हटना। बुद्धि से काम लेते हुए वीरता की मिसाल गढ़ना। गढ़ोगे न ?’

‘बिल्कुल मैडम।’ सारे बच्चों का शोर एकदम संगीतमय हो उठा क्योंकि साथ में इंटरवल खत्म होने की घंटी भी बज उठी थी।

(बाल भारती'मासिक अगस्त 2021 अंक में प्रकाशित)

बुधवार, 14 जुलाई 2021

डॉ. नागेश पांडेय 'संजय' की किशोर कहानी 'बौरा'


 बौरा 
कहानी : डा. नागेश पांडेय ‘संजय'

बात पुरानी है, पर है सच। गांव के बच्चे उसे बौरा कहकर चिढ़ाते थे। उस पर कंकड़ फेंकते। वह आंआंआं कर चिल्लाता तो सब ताली पीट-पीट हंसते। हां, अगर मेरी मां देख लेतीं तो बच्चों की शामत आ जाती। वे बच्चों को डांटती। सब नौ दो ग्यारह हो जाते। मां, उसे बुलाकर कुछ न कुछ खाने को देतीं। वह चबूतरे पर बैठ जाता। जल्दी-जल्दी खाता। कभी इधर देखता तो कभी उधर। मां कहतीं, आराम से खा ले। कोई तुझे तंग न करेगा। 

उसका कोई नहीं था। न मां, न बाप। मां बतातीं, मैंने इसकी मां देखी है। वह भी गूंगी थी। सब उसे बौरी बुआ कहते थे। वह जिसके तिसके घर चौका बरतन कर देती और लोग उसे कुछ खाने पीने को दे देते थे। बौरी बुआ को भेड़िए ने मार दिया था। तब यह मुश्किल से दो साल का था। इशारे में ही बात करता था। इसकी बूढ़ी दादी ने इसे जैसे तैसे पाला। थोड़ा बड़ा हुआ तो सबने जाना कि यह भी गूंगा  है। बाद में इसकी दादी भी नहीं रहीं। बेचारा निबट अकेला रह गया। अब तो वह 15-16 साल का किशोर था। तगड़ा-तंदरुस्त भी। परेशान करने वाले बच्चों में से अगर वह एक को भी पकड़ लेता तो क्या मजाल कि सारे मिलकर भी उसे छुड़ा पाते। लेकिन वह कभी कुछ कहता ही नहीं। बच्चे चिढाते तो बस भाग लेता। कई बार तो बच्चे उसे गांव के बाहर तक छोड़ आते। वह वहां ताल के पास बैठा रहता। ताल में कंकड़ फेंकता। कई बार तो ताल में घुस जाता। जलकुंभी तोड़ता। उसके पैर मिट्टी से सन जाते। वह बाहर निकलकर पीपल के पेड़ के पास बैठ जाता। दिन भर बैठा रहता। मिट्टी उसके पैरों में सूख जाती। वह उसे छुड़ाता और आजू बाजू घूरता। 

हमारे गांव के उत्तर में बहुत बड़ा जंगल था। बहुत ही बड़ा। मीलों लंबा। जंगल के इर्द गिर्द और भी गांव थे। मेरे गांव के कई लोग वहां लकड़ी बीनने जाते। इधर बौरा भी जंगल जाने लगा था। लोग उससे काम कराते और थोड़ा बहुत खाने को दे देते। वह खुश हो जाता। अब तो जंगल जाना उसके लिए आम बात हो गई थी। वह लकड़हारों की राह तकता। कब कोई दिखे और वह साथ चल पड़े। अब तो वह दिन में गांव में दिखता ही न था। मैंने एक दिन गुस्से में बच्चों से कहा, वह तुम सबके कारण अब गांव में नहीं दिखता।

बच्चों ने तालियां पीटीं, 'हां, वह डरता है हमसे। डरपोक कहीं का।'

मेरा मन हुआ कि मैं जोर से कहूं कि नहीं, वह डरपोक नहीं। लेकिन मैं चुप रहा। दरअसल मेरी मां कहतीं थीं, किसी से भी न उलझो। बहस अच्छी बात नहीं होती। बहस ही लड़ाई में बदल जाती है। 

फिर भी मुझे चुप रहकर बुरा लगा था। मेरा मन हमेशा कहता कि वह डरपोक नहीं है। वह डरपोक होता तो क्या ताल में घुस जाता? पेड़ पर चढ़ जाता? जंगल से अंधेरे में आता? 

याद आया, एक दिन रात में हमारे चबूतरे पर आहट सी हुई। हमारे गांव में तब बिजली न थी। रात को डर लगता था। शाम होते ही सन्नाटा पसर जाता। झींगुरों की आवाज डराती थी। आधी रात में तो अक्सर सियार की हुआ हुआ शुरू हो जाती थी। हम बच्चे तो दुबक ही जाते थे। उस दिन हवा भी तेज चल रही थी। तेल की कुप्पी बार बार बुझी तो लैंप जलानी पड़ी। लैप का शीशा भी उस दिन ठीक से साफ नहीं हुआ था। 

कौन है? मां जोर से चिल्लाईं। 

उधर से कोई आवाज नहीं। पड़ोस की दीवार से चाचा ने मां का चिल्लाना सुना तो पूछा, क्या हुआ?

देखो भैया, दरवाजे पर कोई है। 

धीरे धीरे बाहर जाकर देखा गया तो बौरा खड़ा था। हाथ में ढेर सारे कमल। मां हंस पड़ीं, अच्छा तो तू है। 

वह मुस्कुराया और कमल मेरे हाथ में थमा दिए।

मां ने इशारे से कहा, खाना खाएगा तो वह चबूतरे पर ही बैठ गया। उसने खाना खाया और लंबे लंबे डग भरते हुए चला गया। 

अब तो वह आए दिन शाम को मेरे घर आ जाता। जंगल  से कभी फूल लाता तो कभी फल। कभी कभी लकड़ी भी दे जाता। मां मना करतीं तो वह इशारे से खाने के लिए मना करता। मतलब अगर आप उसकी दी हुई चीजें नहीं लेंगे तो वह भी आपसे खाना नहीं लेगा। 

एक दिन रात में हम लोग गहरी नींद में थे। जोर का शोर गूंजा। पता चला कि गांव में भेड़िया आया था। राशिद काका की बकरी उठाकर भाग रहा था। लोगों ने लाठी डंडे लेकर उसका पीछा किया मगर उसने बकरी को नहीं छोड़ा तो नहीं छोड़ा। बौरा भी साथ में दौड़ा था। सबने भेड़िए को गांव के बाहर तक दौड़ाया। भेड़िया जैसे हवा हो गया। किसी की भी पकड़ में न आया। सब हार थक कर वापस लौट आए। लेकिन एक अजीब बात हुई। वापस आए तो देखा बौरा तो साथ में था ही नहीं। उसके ठिकाने पर भी जाकर देखा गया। तो क्या...? वह भेड़िए के पीछे जंगल चला गया था? 

शायद हां...।

सब उसे आवाज लगाते रहे। देर तक उसकी ही बात करते रहे। हां, भला आधी रात में उसे खोजने जंगल कौन जाता तो सब अपने अपने घर लौट गए। उस रात मुझे नींद नहीं आई। बस सुबह का इंतजार था। 

सुबह काफी लोग जंगल गए। दूर तक बौरा को बहुत खोजा गया पर वह नहीं मिला। 

सबका मन बहुत दुखी था। 

बौरा गया तो गया कहां? 

मुझे तो रोना आता था। क्या भेड़िया उसे भी खा गया?

...

कोई दस दिन बाद बहुत दूर के एक गांव से खबर आई कि भेड़िया मारा गया। मेरे गांव से कई लोग उसे देखने गए। पता चला कि किसी अनजान इंसान ने उसे मार गिराया। सब भौचक थेे। वह अनजान और कोई नहीं, बौरा ही था। गांववालों ने बताया कि पिछले दस दिनों से हम लोग इसे जंगल में भटकते देख रहे थे। लोगों ने इससे पता ठिकाना जानना चाहा तो ये बता नहीं पाया। साथ चलने को कहा तो आया नहीं। शायद यह इसी भेड़िए को पकड़ने की फिराक में मारा मारा घूम रहा था। 

बौरा गांव आ गया। आ क्या गया। सब उसे सम्मान सहित लेकर आए। यह कहते हुए कि अरे! यह तो हमारे गांव का है। हमारे गांव में तो बच्चा बच्चा वीर है।  

भेड़िए से भिड़ने में बौरा को चोटें भी खूब आईं थीं। कई जगह जख्म भी थे। 

गांववालों ने उसकी बहुत सेवा की। 

खासकर उन बच्चों ने तो खूब ही, जो कहते थे कि वह डरपोक है।■

(कहानी बाल किलकारी, मासिक के जुलाई 2021 अंक में प्रकाशित)



गुरुवार, 1 जुलाई 2021

बालगीत 'गिजाई'

गिजाई    
बालगीत : डॉ. नागेश पांडेय 'संजय'


अरे ! गिजाई, अरी ! गिजाई,
बोल कहाँ से आई तू ?

अभी तलक तो नहीं यहां थी,
इतने दिन तू रही कहाँ थी?
पिछली बारिस में देखा था,
बतला दे तू गयी जहां थी?

क्यों इस बार झमाझम वाली,
बारिस साथ न लाई तू?

तुझे देख होती हैरानी,
तू लगती पक्की सैलानी ।
जब कागज पर तुझे चढ़ाऊँ,
तो करती है आनाकानी ।

तनिक छुआ तो  हुआ तुझे क्या,
क्यों ऐसे घबड़ाई तू ?

घूम रही है झुंड बनाए,
छी ! छी ! केवल मिट्टी खाए ।
मैगी नूडल खाएगी क्या ?
मम्मी ने हैं आज बनाए ।

क्यों किसान की ताई है तू ?
क्यों उसके मन भाई तू ?
 ('देवपुत्र' मासिक जून-जुलाई 2021 में प्रकाशित )

शनिवार, 19 जून 2021

बाल कविता 'पिता हमारे'-नागेश पांडेय 'संजय'

पिता हमारे
कविता : डॉ. नागेश पांडेय 'संजय'
पिता हमारे पेड़ सरीखे,
छाया देते हैं।
खुद दुःख सहकर हमको 
हर्ष सवाया देते हैं।

पिता नहीं ईश्वर से कम हैं,
पालनहारे हैं।
हमें पालते, हम उनकी 
आँखों के तारे हैं।

पिता मित्र हैं, गुरु हैं : हमको 
राह दिखाते हैं।
पिता हमारे सपनों का 
संसार सजाते हैं। 

पिता कभी कुछ नहीं माँगते,
क्या उनको दें हम?
कभी न ऐसा काम करें, जो
मिले पिता को गम। 
(कविता हरिभूमि, रायपुर में 19 जून 2021 को प्रकाशित)