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शुक्रवार, 14 मई 2021

बाल कहानी 'ईद मुबारक'-डॉ. नागेश पांडेय 'संजय'


कहानी : डा. नागेश पांडेय ‘संजय’

    अखिल और अकील, दोनों गहरे दोस्त थे। यह बेमिसाल दोस्ती दादा-परदादा के जमाने से चली आ रही थी। उनके पापा और अब्बू की दोस्ती, उनके दादा और बाबा की दोस्ती की भी लोग मिसाल देते थे। केवल दो परिवारों में ही नहीं, दो घरों में भी गजब की दोस्ती थी। दोनों घरों की पीठ आपस में जुड़ी थी। अकील का घर पश्चिम मुख को था और अखिल का घर पूरब मुख को। दोनों की छतें एक थीं और आज भी बीच में कोई बाउंड्री नहीं थी। मतलब एक दूसरे के घर से कोई भी चाहता तो पूरब से पश्चिम या पश्चिम से पूरब आ-जा सकता था। बस, छत पर जाकर आवाज लगानी होती थी-चाची या चाचा, दरवाजा खोलो। फिर क्या था, जीने से नीचे उतरकर चाहे अकील के घर जाओ या फिर अखिल के। इस घर से उस घर और उस घर से इस घर चहल कदमी चलती ही रहती थी।
    अखिल और अकील की उम्र में ज्यादा अंतर नहीं था। हां, वैसे अखिल बड़ा था और अकील छोटा। जब अकील का जन्म हुआ तो उसके दादू हंसते चहकते हुए मिठाई लेकर आए थे। छत से जोर से आवाज लगाई थी-अरे सुनो मियां, एक और अखिल आ गया। और अखिल के पापा तेजी से छत पर भागे थे। पीछे-पीछे सारा घर। अखिल की बूढ़ी दादी भी उस दिन जीना चढ़कर छत पर जा पहुंची थी। सब चकित रह गए थे। अकील के अब्बा जान ने मलाई का लड्डू अखिल के पापा के मुंह में ठूंस दिया था। मम्मी ने मोबाइल से दोनों का फोटो खींच लिया था। वह फोटो आज भी दोनों के घर में लगा है।
     दादी ने बूंदी के लड्डू मंगाकर पूरे मोहल्ले में बांटे थे। सबसे कहती थीं, मेरा एक और पोता आ गया। छोटा अखिल। अखिल के दादू को उर्दू का भी ज्ञान था। उन्होंने पूछा था-क्यों बरखुरदार। इसका नाम क्या रखोगे?
‘नामकरण करना तो तुम्हारा काम है पंडित जी। बताओ क्या नाम रखा जाए?’
‘अकील। अकील नाम रखेंगे इसका।’ अखिल के दादा ने चहक कर कहा था। फिर थोड़ा रुककर बोले थे-‘पता है न? अकील का मतलब होता है ज्ञानी।’
     मजा तो तब आया, जब दोनों बड़े हुए। कोई आवाज लगाता- अखिल ओ अखिल?’ और अकील  जवाब देता-आया जी।
     ऐसा भी होता जब अखिल और अकील दोनों ही एक साथ जवाब दे उठते। यह तो गनीमत थी कि दोनों के घर अलग दिशा में थे। नही तो दोनों ही अपने-अपने दरवाजों पर दौड़ पड़ते।
     इन दिनों कोरोना के चलते लॉकडाउन था। ज्यादातर लोग घर से बाहर नहीं निकलते थे। बच्चे तो बिल्कुल ही नहीं। खासकर अखिल और अकील को तो घर से बाहर जाने की कतई मनाही थी। वे किताबें पढ़ते। आनलाइन लूडो, कैरम या अन्य कोई गेम खेलते। आपस में वीडियो काल करते।  
    चार दिन बाद ईद थी। दोनों की बातें चल रही थी।
    अकील कह रहा था-‘मार्च में इतनी जिल्लत नहीं थी। इसलिए होली तो जैसे तैसे मन ही गई। मगर ईद कैसे मनेगी? इस बार तो ईद पर मेला भी शायद ही लगे। अगर लगेगा भी तो ऐसी भीड़ भाड़ में जाना ठीक न होगा।
 अखिल ने हामी भरी और दो साल पुरानी यादों में खो गया। जब वह भी अकील के साथ ईद के मेले गया था। दोनों ने साथ में झूला झूला था। खाजा खाया था। अखिल ने भी अकील के जैसा चिकन का कुर्ता पाजामा पहना था जो उस पर कितना फब रहा था। शाम को अकील की अम्मी कितनी लजीज सिवइयां घर पर दे गईं थीं।
    अकील गुस्साया-‘मैं तुमसे बात कर रहा हूं और तुम न जाने कहां खोए हो? क्या काल काट दूं?’
‘न...नहीं यार। मैं सोच रहा था कि तो क्या इस बार तुम सिवइयां भी नहीं खिलाओगे?’
‘अरे क्यों नहीं ? ऐसा नहीं होगा।’
     दोनों के ही पापा टीचर थे। चुनाव की ड्यूटी के बाद स्कूल में छुट्टी हो गई थी। इसलिए अब वे भी घर में ही रहते थे। बस सुबह-शाम को ही सबका छत पर टहलना होता था। सब मास्क लगाए रहते और दो गज दूरी का पालन भी करते हुए एक दूसरे की खैर मनाते। एक दूसरे के लिए दुआएं करते। यह समझाते भी कि इस समय किसी भी हालत में मन को कमजोर नहीं होने देना है। मन मजबूत रहेगा तो बीमारी से लड़ना भी आसान हो जाएगा।
 चारों तरफ हाहाकार था। शायद ही कोई हो जिसका कोरोना के कारण मन परेशान न हो। अखिल के पापा घर में सभी से योग और प्राणायाम कराते रहते। अकील के घर में सब पंचवक्त नमाजी थे। पापा उनसे कहते भी, देखो भाई आपका तो योग नमाज के बहाने ही हो जाता है।
     अकील की दादी को बहुत सी देशी दवाओं के नुस्खे जैसे रटे हुए थे। वे आनन-फानन में इलाज बता देती थीं और लोगों के रोग उड़न छू हो जाते थे।
    पर न जाने क्या हुआ, दादी अम्मा बीमार पड़ गई। उन्हें जुकाम बुखार आया। बहुत कमजोरी आ गई। उमर का भी असर था। डाक्टर साहब को बड़ी मुश्किल से दिखा पाए। अस्पताल में बहुत भीड़ थी।
    दादी का टेस्ट कराए आज 4 दिन हो चुके थे, मगर रिपोर्ट अभी तक नहीं आई थी। आज ईद भी थी। वैसे भी ईद को लेकर इस बार कोई खास तैयारी न थी। पर अब मन ज्यादा उचाट हो गया था।
    वैसे दादी को आराम तो हो रहा था। कभी अकील तो कभी अखिल के पापा उनकी दवा लेने जाते थे। पूरा घर उनकी तीमारदारी में लगा था। दादी अम्मा झल्लाती भी-मेरे कारण सभी परेशान हैं।
      अखिल और अकील वीडियो काल कर रहे थे। अचानक अखिल को अपने पापा अकील के घर पर दिखे। उनके हाथ में कोई लिफाफा था। वे खुश होकर बता रहे थे- फिकर नहीं करना। डाक्टर के यहां से आ रहा हूं। अम्मा की रिपोर्ट तो बिल्कुल ठीक है। एक-दो दिन में पूरी तरह चंगी हो जाएंगी।’अकील ने मोबाइल कैमरा दादी अम्मा की ओर कर दिया। वे कह रही थीं, मैं तो कब से कह रही थी। मेरी फिकर मत करो। ठीक हो जाऊंगी। यही सब हैं कि पूरा घर सर पर उठा रखा है। सब मायूसी में बैठे रहते हैं। आज ईद है। सिवइयां तक नहीं बनाईं।                              
   इधर अखिल के फोन पर सारी बातें उसकी मम्मी सुन रही थीं। वे खुश होकर बोलीं-ईद मुबारक हो अम्माजी। सिवइयों की चिंता न करें, अम्मा जी। मैंने बना ली हैं। बस,..अभी लाती हूं गरम-गरम। दादी ने आंखों पर चढ़ा चश्मा दो-तीन बार हिलाया। हंसते हुए बोलीं-‘हां, जल्दी से ले आ बहू।...लेकिन ध्यान रहे....दो गज दूरी....
    '...बहुत जरूरी।' आगे का वाक्य सभी ने मिलकर पूरा किया।
    ...और फिर दोनों ही घरों से ईद मुबारक-ईद मुबारक का शोर गूंज उठा।  

4 टिप्‍पणियां:

मोo शोएब फराज़ ने कहा…

बहुत खूब

बेनामी ने कहा…

कोरोना की दूसरी लहर की विभीषिका को दर्शाती एक सशक्त, रोचक तथा भावपूर्ण कहानी । उस दौर में पर्व - त्यौहार और कार्य - व्यवहार सभी प्रभावित हुए थे । ऐसे में सांप्रदायिक सीमाओं से ऊपर उठकर दोस्ती की मिशाल प्रस्तुत करती यह कहानी बाल - मन को प्रभावित और प्रेरित करने में पूरी तरह सक्षम है । आपको बहुत - बहुत बधाई डॉक्टर साहब !
- लायक राम मानव ।

बेनामी ने कहा…

कटुता भरे माहौल को ऐसी ही कहानियाँ चाहिएं... आप सद्भावना के सच्चे प्रचारक हैं.

बेनामी ने कहा…

carona काल मे लिखी आपकी कहानी ईद मुबारक आपसी प्यार और सौहार्द का प्रतीक् है। तारतम्य बना रहा ।अच्छी कहानी के लिए आपको बधाई ।