सूरज जी, मैंने भेजी थी
तुमको लंबी पाती।
लिख भेजा था-गर्मी है यों
कट्टर धूप नहीं फैलाओ।
जैसे सर्दी में रहते थे,
वैसे ही फिर से बन जाओ।
आया नहीं जवाब, अरे क्या!
डाक वहाँ न जाती।
गर्मी से व्याकुल होकर सब,
दुःखी बहुत ज्यादा होते हैं।
हम तो जुगत भिड़ा लेते पर,
नर्वस पशु-पक्षी रोते हैं।
इठलाती नदिया की कलकल,
धीमी पड़ खो जाती।
पेड़ हुए हैं ठूंठ, धरा भी
सूखी साखी है बेचारी।
छोड़ो ढाना कहर, बताओ
क्यों गुस्सा-कैसी लाचारी?
दुःखकारी हरकतें तुम्हारी,
नहीं किसी को भाती।
जैसा भी हो, जो हो, देखो
तुम मुझको कारण बतलाओ।
तरह-तरह के मेरे मन में,
भरे हुए भ्रम, उन्हें हटाओ।
वरना समझूँगा तुम पाती,
खा गये समझ चपाती।
5 टिप्पणियां:
अच्छी पुकार है इस बाल रचना में!
लिख भेजा था-गर्मी है यों
कट्टर धूप नहीं फैलाओ।
जैसे सर्दी में रहते थे,
वैसे ही फिर से बन जाओ।
आया नहीं जवाब, अरे क्या!
डाक वहाँ न जाती।..बहुत सुन्दर और प्यारी कविता...
बहुत प्यारी कविता......
tumhara utsah dekhker khushi hoti hai nagesh. per mein is samay aatm nirvasan mein hoon. jaise hi mera kam poora hoga, mein phir tum jaise naujvan sathiyon se aa milooga. khushi-khushi. bas, kuchh samay ki aur bat hai. sasneh, p manu
हास्य का पुट देकर आपने कविता खूब लिखी है बच्चे तो क्या बड़े भी इसका आनन्द उठायेंगे।
सुधा भार्गव
एक टिप्पणी भेजें